Rajputana-The Complete Encyclipedia of Gotra #Bhardwaj(Nagvanshi_Rajput /Bhar_Rajput

 Rajputana- The Complete Encyclipedia(Nagvanshi_Rajput/Bhar_Rajput Gotra #BHARDWAJ(भारद्वाज)



     

































राजपूतों की वंशावली


 “दस रवि से दस चन्द्र से बारह ऋषिज प्रमाण,

चार हुतासन सों भये कुल छत्तिस वंश प्रमाण

भौमवंश से धाकरे टांक #नाग🐍🐍 उनमान

चौहानी चौबीस बंटि कुल बासठ वंश प्रमाण.”

अर्थ:-दस सूर्य वंशीय क्षत्रिय दस चन्द्र वंशीय,बारह ऋषि वंशी एवं चार अग्नि वंशीय कुल छत्तिस क्षत्रिय वंशों का प्रमाण है,बाद में भौमवंश नागवंश क्षत्रियों को सामने करने के बाद जब चौहान वंश चौबीस अलग अलग वंशों में जाने लगा तब क्षत्रियों के बासठ अंशों का पमाण मिलता है।


सूर्य वंश की दस शाखायें:-

१. कछवाह २. राठौड ३. बडगूजर४. सिकरवार ५. सिसोदिया ६.गहलोत ७.गौर ८.गहलबार ९.रेकबार १०. नागवंशी(भारद्वाज)


चन्द्र वंश की दस शाखायें:-

१.जादौन २.भाटी ३.तोमर ४.चन्देल ५.छोंकर ६.होंड ७.पुण्डीर ८.कटैरिया ९.स्वांगवंश १०.वैस


अग्निवंश की चार शाखायें:-

१.चौहान २.सोलंकी ३.परिहार ४.पमार.


ऋषिवंश की बारह शाखायें:-

१.सेंगर २.दीक्षित ३.दायमा ४.गौतम ५.अनवार (राजा जनक के वंशज) ६.विसेन  ७.करछुल  ८.हय ९.अबकू तबकू १०.कठोक्स ११.द्लेला १२.बुन्देला


चौहान वंश की चौबीस शाखायें:-

१.हाडा २.खींची ३.सोनीगारा ४.पाविया ५.पुरबिया ६.संचौरा ७.मेलवाल८.भदौरिया ९.निर्वाण १०.मलानी ११.धुरा १२.मडरेवा १३.सनीखेची १४.वारेछा १५.पसेरिया १६.बालेछा १७.रूसिया १८.चांदा१९.निकूम २०.भावर २१.छछेरिया २२.उजवानिया २३.देवडा २४.बनकर.


                         


राजपूतों की कुलदेवी


राठौड़ नागणेचिया

2. गहलोत बाणेश्वरी माता

3. कछवाहा जमवाय माता

4. दहिया कैवाय माता

5. गोहिल बाणेश्वरी माता

6. चौहान आशापूर्णा माता

7. बुन्देला अन्नपूर्णा माता

8. भारदाज शारदा माता

9. चंदेल मेंनिया माता

10. नेवतनी अम्बिका भवानी

11. शेखावत जमवाय माता

12. चुड़ासमा अम्बा भवानी माता

13. बड़गूजर कालिका(महालक्ष्मी)माँ

14. निकुम्भ कालिका माता

15. भाटी स्वांगिया माता

16. उदमतिया कालिका माता

17. उज्जेनिया कालिका माता

18. दोगाई कालिका(सोखा)माता

19. धाकर कालिका माता

20. गर्गवंश कालिका माता

21. परमार सच्चियाय माता

22. पड़िहार चामुण्डा माता

23. सोलंकी खीवज माता

24. इन्दा चामुण्डा माता

25. जेठंवा चामुण्डा माता

26. चावड़ा चामुण्डा माता

27. गोतम चामुण्डा माता

28. यादव योगेश्वरी माता

29. कौशिक योगेश्वरी माता

30. परिहार योगेश्वरी माता

31. बिलादरिया योगेश्वरी माता

32. तंवर चिलाय माता

33. हैध्य विन्ध्यवासिनि माता

34. कलचूरी विन्धावासिनि माता

35. सेंगर विन्धावासिनि माता

36. भॉसले जगदम्बा माता

37. दाहिमा दधिमति माता

38. रावत चण्डी माता

39. लोह थम्ब चण्डी माता

40. काकतिय चण्डी माता

41. लोहतमी चण्डी माता

42. कणड़वार चण्डी माता

43. केलवाडा नंदी माता

44. हुल बाण माता

45. बनाफर शारदा माता

46. झाला शक्ति माता

47. सोमवंश महालक्ष्मी माता

48. जाडेजा आशपुरा माता

49. वाघेला अम्बाजी माता

50. सिंघेल पंखनी माता

51. निशान भगवती दुर्गा माता

52. बैस कालका माता

53. गोंड़ महाकाली माता

54. देवल सुंधा माता

55. खंगार गजानन माता

56. चंद्रवंशी गायत्री माता

57. पुरु महालक्ष्मी माता

58. जादोन कैला देवी (करोली )

59. छोकर चन्डी केलावती माता

60. नाग विजवासिन माता

61. लोहतमी चण्डी माता

62. चंदोसिया दुर्गा माता

63. सरनिहा दुर्गा माता

64. सीकरवाल दुर्गा माता

65. किनवार दुर्गा माता

66. दीक्षित दुर्गा माता

67. काकन दुर्गा माता

68. तिलोर दुर्गा माता

69. विसेन दुर्गा माता

70. निमीवंश दुर्गा माता

71. निमुडी प्रभावती माता

72. नकुम वेरीनाग बाई

73. वाला गात्रद मातास्वाति कालिका माता

75. राउलजी क्षेमकल्याणी माता


 


राजपूत वंशो के गोत्र


प्रतिहार वंश के गोत्र-प्रवरादि

वंश – सूर्य वंश

गोत्र – कपिल

वेद – यजुर्वेद

शाखा – वाजस्नेयी

प्रवर – कश्यप, अप्सार, नैधुव

उपवेद – धनुर्वेद

कुल देवी – चामुंडा माता

वर देवी – गाजन माता

कुल देव – विष्णु भगवान

सूत्र – पारासर

शिखा – दाहिनी

कुलगुरु – वशिष्ट

निकास – उत्तर

प्रमुख गादी – भीनमाल, मंडोर,कन्नोज

ध्वज – लाल (सूर्य चिन्ह युक्त)

वॄक्ष – सिरस

पितर – नाहङराव, लूलर गोपालजी

नदी – सरस्वती

तीर्थ – पुष्कर राज

मन्त्र – गायत्री जाप

पक्षी – गरुड़

नगारा – रणजीत

चारण – लालस

ढोली – सोनेलिया लाखणिया विरद – गुजरेश्वर, राणा ,


तंवर (तोमर) वंश के गोत्र-प्रवरादि

वंश – चंद्रवंशी

कुल देवी – चिल्लाय माता

शाखा – मधुनेक,वाजस्नेयी

गोत्र – अत्रि, व्यागर, गागर्य

प्रवर – गागर्य,कौस्तुभ,माडषय

शिखा – दाहिनी

भेरू – गौरा

शस्त्र – खड़ग

ध्वज – पंचरगा

पुरोहित – भिवाल

बारहठ – आपत केदार वंशी

ढोली – रोहतान जात का

स्थान – पाटा मानस सरोवर

कुल वॄक्ष – गुल्लर

प्रणाम – जय गोपाल

निशान – कपि(चील),चन्द्रमा

ढोल – भंवर

नगारा – रणजीत/जय, विजय, अजय

घोड़ा – श्वते

निकास – हस्तिनापुर

प्रमुख गदी – इन्द्रप्रस्थ,दिल्ली

रंग – हरा

नाई – क़ाला

चमार – भारीवाल

शंख – पिचारक

नदी – सरस्वति,तुंगभद्रा

वेद – यजुर्वेद

सवारी – रथ

देवता – शिव

गुरु – सूर्य

उपाधि – जावला नरेश.दिल्लीपति


राठोड़ वंश के गोत्र-प्रवरादि

गोत्र – गोतमस्य

नदी – सरयू

कुण्ड – सूर्य

क्षेत्र – अयोध्या

पुत्र – उषा

पितृ – सोमसायर

गुरु – वशिष्ठ

पुरोहित – सोह्ड़

कुलदेवी – नागनेचिया

नख – दानेसरा

वेद – शुक्ल यजुर्वेद

घोड़ा – दलसिंगार

तलवार – रणथली

माला – रत्न

वंश – इक्ष्वाकु (रघुवंशी)

धर्म – सन्यास

बड़ – अक्षय

गऊ – कपिला

नगारा – रणजीत

निशान – पंचरंगा

ढोल – भंवर

दमामी – देहधङो

भाट – सिंगेल्या

बारहठ – रोहङिया

शिखा – दाहिनी

गादी – लाहोर

चिन्ह – चील

इष्ट – सीताराम

सम्प्रदाय – रामानुज

पोथी -बडवा,रानीमंगा,कुलगुरु

शाखा – साडा तेरह (131/2)

उपाधि – रणबंका, कमध्व्ज


परमार वंश के गोत्र-प्रवरादि

वंश – अग्निवंश

कुल – सोढा परमार

गोत्र – वशिष्ठ

प्रवर – वशिष्ठ, अत्रि ,साकृति

वेद – यजुर्वेद

उपवेद – धनुर्वेद

शाखा – वाजसनयि

प्रथम राजधानी – उज्जेन (मालवा)

कुलदेवी – सच्चियाय माता

इष्टदेव – सूर्यदेव महादेव

तलवार – रणतरे

ढाल – हरियण

निशान – केसरी सिंह

ध्वजा – पीला रंग

गढ – आबू

शस्त्र – भाला

गाय – कवली

वृक्ष – कदम्ब,पीपल

नदी – सफरा (क्षिप्रा)

पाघ – पंचरंगी

राजयोगी – भर्तहरी

संत – जाम्भोजी

पक्षी – मयूर

प्रमुख गादी – धार नगरी


गुहिलोत(सिसोदिया) वंश के गोत्र प्रवरादि

वंश – सूर्यवंशी,गुहिलवंश,सिसोदिया गोत्र – वैजवापायन

प्रवर – कच्छ, भुज, मेंष

वेद – यजुर्वेद

शाखा – वाजसनेयी

गुरु – द्लोचन(वशिष्ठ)

ऋषि – हरित

कुलदेवी – बाण माता

कुल देवता – श्री सूर्य नारायण

इष्ट देव – श्री एकलिंगजी

वॄक्ष – खेजड़ी

नदी – सरयू

झंडा – सूर्य युक्त

पुरोहित – पालीवाल

भाट – बागड़ेचा

चारण – सोदा बारहठ

ढोल – मेगजीत

तलवार – अश्वपाल

बंदूक – सिंघल

कटार – दल भंजन

नगारा – बेरीसाल

पक्षी – नील कंठ

निशान – पंच रंगा

निर्वाण – रणजीत

घोड़ा – श्याम कर्ण

तालाब – भोडाला

विरद – चुण्डावत, सारंगदेवोत

घाट – सोरम

ठिकाना – भिंडर

चिन्ह – सूर्य

शाखाए – 24


चौहान वंश के गोत्र-प्रवरादि

वंश – अग्निवंश

वेद – सामवेद

गोत्र – वत्स

वॄक्ष – आशापाल

नदी – सरस्वती

पोलपात – द्सोदी

इष्टदेव – अचलेश्वर महादेव

कुल देवी – आशापुरा

नगारा – रणजीत

निशान – पीला

झंडा – सूरज, चांद, कटारी

शाखा – कौथुनी

पुरोहित – सनादय(चन्दोरिया)

भाट – राजोरा

धुणी – सांभर

भेरू – काला भेरव

गढ़ – रणथम्भोर

गुरु – वशिष्ठ

तीर्थ – भॄगु क्षेत्र

पक्षी – कपोत

ऋषि – शांडिल्य

नोबत – कालिका

पितृ – लोटजी

प्रणाम – जय आशापुरी

विरद – समरी नरेश


कछवाह वंश के गोत्र-प्रवरादि

गोत्र – मानव, गोतम

प्रवर – मानव, वशिष्ठ

कुलदेव – श्री राम

कुलदेवी – श्री जमुवाय माता जी

इष्टदेवी – श्री जीणमाता जी

इष्टदेव – श्री गोपीनाथ जी

वेद – सामवेद

शाखा – कोथुमी

नदी – सरयू

वॄक्ष – अखेबड़

नगारा – रणजीत

निशान – पंचरंगा

छत्र – श्वेत

पक्षी – कबूतर

तिलक – केशर

झाड़ी – खेजड़ी

गुरु – वशिष्ठ

भोजन – सुर्त

गिलास – सुख

पुरोहित – गंगावत, भागीरथ


भाटी वंश के गोत्र-प्रवरादि

वंश – चन्द्रवंश

कुल – यदुवंशी

कुलदेवता – लक्ष्मी नाथ जी

कुलदेवी

कुलदेवी – स्वागिया माता

इष्टदेव – श्री कृष्ण

वेद – यजुर्वेद

गोत्र – अत्रि

छत्र – मेघाडम्भर

ध्वज – भगवा पीला रंग

ढोल – भंवर

नक्कारा – अगजीत

गुरु – रतन नाथ

पुरोहित – पुष्करणा ब्राह्मण

पोलपात – रतनु चारण

नदी – यमुना

वॄक्ष – पीपल

राग – मांड

विरुद – उतर भड किवाड़ भाटी

प्रणाम – जय श्री कृष्ण


सोलंकी वंश का गोत्र-प्रवरादि

वंश – अग्निवंश

गोत्र – वशिष्ठ, भारदाज

प्रवर तीन – भारदाज, बार्हस्पत्य, अंगिरस

वेद – यजुर्वेद

शाखा – मध्यन्दिनी

सूत्र – पारस्कर, ग्रहासूत्र

इष्टदेव – विष्णु

कुलदेवी – चण्डी, काली, खीवज

नदी – सरस्वती

धर्म – वैष्णव

गादी – पाटन

उत्पति – आबू पर्वत

मूल पुरुष – चालुक्य देव

निशान – पीला

राव – लूतापड़ा

घोड़ा – जर्द

ढोली – बहल

शिखापद – दाहिना

दशहरा पूजन – खांडा


झाला वंश के गोत्र-प्रवरादि

वंश – सूर्य वंश

गोत्र – मार्कण्डेय

शाखा – मध्यनी

कुल – मकवान(मकवाणा)

पर्व तीन – अश्व, धमल, नील

कुलदेवी – दुर्गा,मरमरा देवी,शक्तिमाता

इष्टदेव – छत्रभुज महादेव

भेरव – केवडीया

कुलगोर – मशीलीया राव

शाखाए – झाला,राणा


गौङ वंश के गोत्र-प्रवरादि

वंश – सूर्य वंश

गोत्र — भारद्वाज

प्रवर तीन – भारद्वाज,बाईस्पत्य, अंगिरस

वेद – यजुर्वेद

शाखा – वाजसनेयि

सूत्र – पारस्कर

कुलदेवी – महाकाली

इष्टदेव – रुद्रदेव

वॄक्ष – केला


बल्ला वंश के गोत्र-प्रवरादि

वंश – इक्ष्वाकु-सुर्यवंश

गोत्र – कश्यप

प्रवर – कश्यप, अवत्सार, नेधृव

वेद – यजुर्वेद

शाखा – माध्यन्दिनी

आचारसुत्र – गोभिलग्रहासूत्र

गुरु – वशिष्ठ

ऋषि – कुण्डलेश्वर

पितृ – पारियात्र

कुलदेवी – अम्बा, कालिका, चावण्ड

इष्टदेव – शिव

आराध्यदेव – कासब पुत्र सूर्य

मन्त्र – ॐ धृणी सूर्याय नम:

भेरू – काल भेरू

नदी – सरयू

क्षेत्र – बल क्षेत्र

वॄक्ष – अक्षय

प्रणाम – जय श्री राम


दहिया वंश के गोत्र-प्रवरादि

वंश – सूर्य वंश बाद में ऋषि वंश

गोत्र – गोतम

प्रवर – अलो, नील-जल साम

कुल देवी – कैवाय माता

इष्टदेव – भेरू काला

कुल देव – महादेव

कुल क्षेत्र – काशी

राव – चंडिया-एरो

घोड़ा – श्याम कर्ण

नगारा – रणजीत

नदी – गंगा

कुल वृक्ष – नीम और कदम

पोलपात – काछेला चारण

निकास – थानेर गढ

उपाधि – राजा, राणा, रावत

पक्षी – कबूतर

ब्राह्मण – उपाध्याय

तलवार – रण थली

प्रणाम – जय कैवाय माता

गाय – सुर

शगुन – पणिहारी

वेद – यजुर्वेद j

निशान – पंच रंगी

शाखा – वाजसनेयी

भेरव – हर्शनाथ

#नागवंशी_क्षत्रिय_राजवंश (वर्तमान भर/राजभर (भारद्वाज)

 #भारशिव_नागवंशी_भर/राजभर #क्षत्रिय का परिचय


वर्ण – क्षत्रिय


राजवंश – भारशिव वंशी क्षत्रिय राजवंश(राजपुत्र)


वंश – नागवंशी राजवंश 


गोत्र – भारद्वाज


वेद – यजुर्वेद


उपवेद – धनुर्वेद


गुरु – देवो के देव महादेव ।।


कुलदेव- डीह बाबा 


कुलदेवी – चामुण्डा देवी,माँ भवानी(विंध्यवासिनी) ।।


नदी – सरस्वती,यमुना,गंगा 


तीर्थ – काशी,बनारस(वाराणसी)


मंत्र – गायत्री मंत्र


झंडा – केसरिया,पिताम्बर 


निशान – लाल सूर्य,नाग(सर्प)


पशु – अश्व(घोड़ा)


पूजन – दश अश्वमेघ यज्ञ,खंड पूजन दशहरा,डीह पूजन ।।


भारशिव नागवंशी क्षत्रिय की एक प्रशाखा है " #अर्कवंशी "। वैदिक काल में जिन #भर_क्षत्रिय राजाओ ने भगवान् शिव को प्रसन्न करके अपनी भक्ति से #भारशिव की उपाधि पाई थी ।। वही राजा #भारशिव कहलाए । इन्होने भगवान् शिव को प्रसन्न करने करने के लिए अपने कंधो पर विशाल शिवलिंग धारण किया और तपस्या की इनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर इन भक्तवीरो को भारशिव उपाधि प्राप्त हुई । प्रतीक के स्वरुप में यह अपने गर्दन में शिवलिंग की माला धारण करते थे , भारशिव योद्धा इतने शसक्त थे की इन्होने #दशाश्वमेघ यज्ञ भी किये थे ।

वैदिक काल तक भारशिव (अर्कवंश) से सम्बन्ध रखते थे परन्तु समय के साथ भारशिव योद्धा (नागवंश) से सम्बन्ध रखने लगे चूँकि नागवंश -सूर्यवंश की उपशाखा है जिस कारण इनमे वैवाहिक सम्बन्ध भी विद्यमान है ।। स्वयं भगवान् श्री राम के ज्येष्ठ पुत्र कुश का विवाह नागवंश की राजकुमारी से हुआ था अतः भारशिव राजाओ के आराध्य देव भागवान शिव है और नागवंश के आराध्यदेव भी भगवन शिव है जिस कारण इन दोनो कुलो में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होने के कारण भारशिव की उपाधि को नागवंश के राजाओ ने आगे बढ़ाया इसी भारशिव के (नागवंश) में कई महान राजाओ ने जिनमे महाराजा भवनाग , महाराजा नवनाग आदि प्रसिद्ध है ।

इसी भारशिव के ( नागवंश ) में राष्ट्र रक्षक महाराजा #सुहेलदेव_राजभर ने जन्म लिया और बहराइच के युद्ध में १,५०,००० (डेढ़ लाख ) से अधिक इस्लामी जिहादियों की गर्दन गाजर मूली की तरह काट डाली और सम्पूर्ण देश की रक्षा की यह युद्ध १०३४ ईस्वी में बहराइच में लड़ा गया था जिसमें 21 राजाओ ने महाराजा सुहेलदेव राजभर का अनुशरण करके युध्द किया था ।। इस घटना का वर्णन मध्यकालीन ग्रन्थ जैमिनी में इसका उल्लेख है इस युद्ध के पश्चात विश्व में भारत के राजाओ का ऐसा आतंक व्याप्त हुआ था की अगले ३०० वर्षो तक किसी इस्लामी आक्रमणकारी ने भारत पर आक्रमण करने का साहस नहीं किया । इनके वैवाहिक सम्बन्ध #वाकाटक_वंश से थे और तत्कालीन राजवंशो से भी इनके वैवाहिक सम्बन्ध थे ।

सूर्यवंश सतयुग में #इक्ष्वाकुवंश के नाम से जाना गया और त्रेतायुग में रघुवंश के नाम से जाना गया द्वापर युग में अपने मूलनाम #नागवंशी से जाना गया और कलियुग में #भर/राजभर के नाम से जाना गया और भविष्य में जाना जायेगा।।


#सतना रियासत : इतिहास के धूमिल पन्ने

मध्य प्रदेश स्थित सतना रियासत का किला "#कोठी" के नाम से प्रसिद्द है. इस किले पर अब #बघेल राजपूतों का कब्ज़ा है. लेकिन इस रियासत के इतिहास पर गौर करें तो यहाँ कभी शक्तिशाली #भर-राजाओं का राज हुआ करता था. इस किले के इतिहास के बारे में कहा जाता है की उस #भर राजा ने गुजरात से आए एक बघेल राजपूत की दयनीय स्थिति पर तरस खा कर क्षत्रिय धर्म निभाते हुए उसे अपने दरबार में नौकरी पर रख लिया....कुछ ही समय में वो भर राजा के करीबी सलाहकारों में गिना जाने लगा और एक दिन मौका पाकर उसने "#भर" राजा का क़त्ल कर दिया और उसकी सत्ता हथिया ली.....तभी से इस किले पर बघेलों का कब्ज़ा हो गया.

कुछ इतिहासकार ये भी मानते हैं की अवध और बंदेलखंड में मुसलामानों द्वारा 200 साल तक चलाया गया "भर मारो" अभियान के समय सतना रियासत के "भर" राजा अपनी पहचान छुपाकर "#भर-राजपूत" से बघेल में कन्वर्ट हो गए और अपने मृत्यु की मनगढंत कहानी अपनी प्रजा में फैला दी....जिससे उनकी जान तो बची ही, उनको मुसलमानों द्वारा इनाम भी मिला साथ ही साथ उनकी रियासत भी बच गयी.


ठीक ऐसी ही कहानी शाहाबाद में "रोहतासगढ़" के किले के बारे में भी बताई जाती है जहाँ के "भर राजे" परिहार राजपूतों में कन्वर्ट हो गए थे...

इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में आजमगढ़/मऊ/घोसी के सेंगर राजपूतों की कहानी भी यही बताती है की "इटावा" के भर राजपूतों से निर्णायक लड़ाई में सेंगरों की करारी हार हुई...फिर वहाँ से एक सेंगर राजपूत हार मानकर पूर्वांचल आ जाता है और वहाँ आजमगढ़ में भर राजा "असीलदेव राजभर" के यहां शरणार्थी बन कर नौकरी करने लगता है...फिर एक दिन मौका पाकर उस भर राजा का क़त्ल कर देता है....इस घटना के बाद उसने इस क्षेत्र में "सेंगर" राजपूतों की नीव रखी...


जय महाराजा सुहेलदेव राजभर 🚩🚩🚩

जय माँ भवानी 🚩🚩

हर-हर महादेव शिव शंम्भू 🙏🙏🙏


सौजन्य से:- अमित प्रताप भारद्वाज (नागवंशी क्षत्रिय राजपूत)🙏🙏


चौहान वंश


ब्रम्हाजी से लेकर पृथ्वीराज चौहान तक की वंशावली


वर्तमान इतिहासकारों ने इतिहास को 2000 से 4000 वर्षो में समेट लिया है विदेशी इतिहासकार अगर ये कार्य करे तो समझा जा सकता है की इसाई सम्प्रदाय की उत्पत्ति 2000 वर्ष पूर्व हुई और यहूदियो की 4500 वर्ष पूर्व अतः इससे पहले का इतिहास उन्हें नहीं ज्ञात है .. पर हमारे देश के इतिहासकार अगर ऐसा करे तो समझ से परे है जबकि हमारे पास रामायण महाभारत और पुराणों जैसे अनेकों एतिहासिक ग्रन्थ है जिनकी घटनाएं सत्य प्रमाणित भी होती जा रही है.. वैसे प्रमाणों की आवश्यकता सिर्फ भारतीयों को क्यूँ होती है विदेशियों के कथनों और ग्रंथो को हम बिना जांचे परखे क्यों सच मान लेते है..!

इस पोस्ट में हम आपको बता रहे है कई एतिहासिक ग्रंथो से जुटाई ऐसी जानकारी जिसके बाद हमें अपने अतीत में झाँकने में आसानी होगी.. हम जानते हैं कि सारी सृष्टी परमपिता ब्रम्हा से उत्पन्न हुई है लेकिन अब जानते है उनकी पूरी वंशावली..


1. परमपिता ब्रम्हा से प्रजापति दक्ष हुए.

2. दक्ष से अदिति हुए.

3. अदिति से बिस्ववान हुए.

4. बिस्ववान से मनु हुए जिनके नाम से हम लोग मानव कहलाते हैं.

5. मनु से इला हुए.

6. इला से पुरुरवा हुए जिन्होंने उर्वशी से विवाह किया.

7. पुरुरवा से आयु हुए.

8. आयु से नहुष हुए जो इन्द्र के पद पर भी आसीन हुए परन्तु सप्तर्षियों के श्राप के कारण पदच्युत हुए.

9. नहुष के बड़े पुत्र यति थे जो सन्यासी हो गए इसलिए उनके दुसरे पुत्र ययाति राजा हुए. ययाति के पुत्रों से ही समस्त वंश चले. ययाति के पांच पुत्र थे. देवयानी से यदु और तर्वासु तथा शर्मिष्ठा से दृहू, अनु, एवं पुरु. यदु से यादवों का यदुकुल चला जिसमे आगे चलकर श्रीकृष्ण ने जन्म लिया. तर्वासु से मलेछ, दृहू से भोज तथा पुरु से सबसे प्रतापी पुरुवंश चला. अनु का वंश ज्यादा नहीं चला.


10. पुरु के कौशल्या से जन्मेजय हुए.

11. जन्मेजय के अनंता से प्रचिंवान हुए.

12. प्रचिंवान के अश्म्की से संयाति हुए.

13. संयाति के वारंगी से अहंयाति हुए.

14. अहंयाति के भानुमती से सार्वभौम हुए.

15. सार्वभौम के सुनंदा से जयत्सेन हुए.

16. जयत्सेन के सुश्रवा से अवाचीन हुए.

17. अवाचीन के मर्यादा से अरिह हुए.

18. अरिह के खल्वंगी से महाभौम हुए.

19. महाभौम के शुयशा से अनुतनायी हुए.

20. अनुतनायी के कामा से अक्रोधन हुए.

21. अक्रोधन के कराम्भा से देवातिथि हुए.

22. देवातिथि के मर्यादा से अरिह हुए.

23. अरिह के सुदेवा से ऋक्ष हुए.

24. ऋक्ष के ज्वाला से मतिनार हुए.

25. मतिनार के सरस्वती से तंसु हुए.

26. तंसु के कालिंदी से इलिन हुए.

27. इलिन के राथान्तरी से दुष्यंत हुए.

28. दुष्यंत के शकुंतला से भरत हुए जिनके नाम पर हमारा देश भारतवर्ष कहलाता है.

29. भरत के सुनंदा से भमन्यु हुए.

30. भमन्यु के विजय से सुहोत्र हुए.

31. सुहोत्र के सुवर्णा से हस्ती हुए जिनके नाम पर पूरे प्रदेश का नाम हस्तिनापुर पड़ा.

32. हस्ती के यशोधरा से विकुंठन हुए.

33. विकुंठन के सुदेवा से अजमीढ़ हुए.

34. अजमीढ़ से संवरण हुए.

35. संवरण के तपती से कुरु हुए जिनके नाम से ये वंश कुरुवंश कहलाया.

36. कुरु के शुभांगी से विदुरथ हुए.

37. विदुरथ के संप्रिया से अनाश्वा हुए.

38. अनाश्वा के अमृता से परीक्षित हुए.

39. परीक्षित के सुयशा से भीमसेन हुए.

40. भीमसेन के कुमारी से प्रतिश्रावा हुए.

41. प्रतिश्रावा से प्रतीप हुए.

42. प्रतीप के सुनंदा से तीन पुत्र देवापि, बाह्लीक एवं शांतनु का जन्म हुआ. देवापि किशोरावस्था में ही सन्यासी हो गए एवं बाह्लीक युवावस्था में अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ने में लग गए इसलिए सबसे छोटे पुत्र शांतनु को गद्दी मिली. शांतनु से भीष्म हुए जिनकी कहानी और वंशावली विचित्र है ..

43. शांतनु कि गंगा से देवव्रत हुए जो आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए. भीष्म का वंश आगे नहीं बढा क्योंकि उन्होंने आजीवन ब्रम्हचारी रहने की प्रतिज्ञा कि थी. शांतनु की दूसरी पत्नी सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए. चित्रांगद की मृत्यु युवावस्था में ही हो गयी. विचित्रवीर्य कि दो रानियाँ थी, अम्बिका और अम्बालिका. विचिचित्रवीर्य भी संतान प्राप्ति के पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गए, लेकिन महर्षि व्यास कि कृपा से उनका वंश आगे चला.

44. विचित्रवीर्य के महर्षि व्यास की कृपा से अम्बिका से ध्रतराष्ट्र, अम्बालिका से पांडू तथा अम्बिका की दासी से विदुर का जन्म हुआ.

45. ध्रितराष्ट्र से दुर्योधन, दुहशासन, इत्यादि 100 पुत्र एवं दुशाला नमक पुत्री हुए. इनकी एक वैश्य कन्या से युयुत्सु नामक पुत्र भी हुआ जो दुर्योधन से छोटा और दुशासन से बड़ा था. इतने पुत्रों के बाद भी इनका वंश आगे नहीं चला क्योंकि इनके समूल वंश का नाश महाभारत के युद्घ में हो गया. किन्दम ऋषि के श्राप के कारण पांडू संतान उत्पत्ति में असमर्थ थे. उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को दुर्वासा ऋषि के मंत्र से संतान उत्पत्ति की आज्ञा दी. कुंती के धर्मराज से युधिष्ठिर, पवनदेव से भीम और इन्द्रदेव से अर्जुन हुए तथा माद्री के अश्वनीकुमारों से नकुल और सहदेव का जन्म हुआ. इन पांचो के जन्म में एक एक साल का अंतर था. जिस दिन भीम का जन्म हुआ उसी दिन दुर्योधन का भी जन्म हुआ.

46. युधिष्ठिर के द्रौपदी से प्रतिविन्ध्य एवं देविका से यौधेय हुए. भीम के द्रौपदी से सुतसोम, जलन्धरा से सवर्ग तथा हिडिम्बा से घतोत्कच हुआ. घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक हुआ. नकुल के द्रौपदी से शतानीक एवं करेनुमती से निरमित्र हुए. सह्देव के द्रौपदी से श्रुतकर्मा तथा विजया से सुहोत्र हुए. इन चारो भाइयों के वंश नहीं चले. अर्जुन के द्रौपदी से श्रुतकीर्ति, सुभद्रा से अभिमन्यु, उलूपी से इलावान, तथा चित्रांगदा से बभ्रुवाहन हुए. इनमे से केवल अभिमन्यु का वंश आगे चला.

47. अभिमन्यु के उत्तरा से परीक्षित हुए. इन्हें ऋषि के श्रापवश तक्षक ने कटा और ये मृत्यु को प्राप्त हुए.

48. परीक्षित से जन्मेजय हुए. इन्होने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्पयज्ञ करवाया जिसमे सर्पों के कई जातियां समाप्त हो गयी, लेकिन तक्षक जीवित बच गया.

49. जन्मेजय से शतानीक तथा शंकुकर्ण हुए.

50. शतानीक से अश्वामेघ्दत्त हुए.

महाभारत युद्ध के पश्चात् राजा युधिष्ठिर की 30 पीढ़ियों ने 1770 वर्ष 11 माह 10 दिन तक राज्य किया


युधिष्ठिर : 36 वर्ष

परीक्षित: 60 वर्ष

जनमेजय: 84 वर्ष

अश्वमेध : 82 वर्ष

द्वैतीयरम : 88 वर्ष

क्षत्रमाल : 81 वर्ष

चित्ररथ : 75 वर्ष

दुष्टशैल्य : 75वर्ष

उग्रसेन : 78 वर्ष

शूरसेन : 78 वर्ष

भुवनपति : 61 वर्ष

रणजीत : 65 वर्ष

श्रक्षक : 64 वर्ष

सुखदेव : 62 वर्ष

नरहरिदेव : 51 वर्ष

शुचिरथ : 42 वर्ष

शूरसेन द्वितीय : 58 वर्ष

पर्वतसेन : 55 वर्ष

मेधावी : 52 वर्ष

सोनचीर : 50 वर्ष

भीमदेव : 47 वर्ष

नरहिरदेव द्वितीय : 47 वर्ष

पूरनमाल : 44 वर्ष

कर्दवी : 44 वर्ष

अलामामिक : 50 वर्ष

उदयपाल : 38 वर्ष

दुवानमल : 40 वर्ष

दामात : 32 वर्ष

भीमपाल : 58 वर्ष

क्षेमक : 48 वर्ष

क्षेमक के प्रधानमन्त्री विश्व ने क्षेमक का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 14 पीढ़ियों ने 500 वर्ष 3 माह 17 दिन तक राज्य किया

विश्व : 17 वर्ष

पुरसेनी : 42 वर्ष

वीरसेनी : 52 वर्ष

अंगशायी : 47 वर्ष

हरिजित : 35 वर्ष

परमसेनी : 44 वर्ष

सुखपाताल : 30 वर्ष

काद्रुत : 42 वर्ष

सज्ज : 32 वर्ष

आम्रचूड़ : 27 वर्ष

अमिपाल : 22 वर्ष

दशरथ : 25 वर्ष

वीरसाल: 31 वर्ष

वीरसालसेन: 47 वर्ष

वीरसालसेन के प्रधानमन्त्री वीरमाह ने वीरसालसेन का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 445 वर्ष 5 माह 3 दिन तक राज्य किया


वीरमाह: 35 वर्ष

अजितसिंह: 27 वर्ष

सर्वदत्त: 28 वर्ष

भुवनपति: 15 वर्ष

वीरसेन: 21 वर्ष

महिपाल: 40 वर्ष

शत्रुशाल: 26 वर्ष

संघराज: 17 वर्ष

तेजपाल: 28 वर्ष

मानिकचंद: 37 वर्ष

कामसेनी: 42 वर्ष

शत्रुमर्दन: 8 वर्ष

जीवनलोक: 28 वर्ष

हरिराव: 26 वर्ष

वीरसेन द्वितीय: 35 वर्ष

आदित्यकेतु: 23 वर्ष

प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 9 पीढ़ी ने 374 वर्ष 11 माह 26 दिन तक राज्य किया


वीरमाह: 35 वर्ष

अजितसिंह: 27 वर्ष

सर्वदत्त: 28 वर्ष

भुवनपति: 15 वर्ष

वीरसेन: 21 वर्ष

महिपाल: 40 वर्ष

शत्रुशाल: 26 वर्ष

संघराज: 17 वर्ष

तेजपाल: 28 वर्ष

मानिकचंद: 37 वर्ष

कामसेनी: 42 वर्ष

शत्रुमर्दन: 8 वर्ष

जीवनलोक: 28 वर्ष

हरिराव: 26 वर्ष

वीरसेन द्वितीय: 35 वर्ष

आदित्यकेतु: 23 वर्ष

प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 9 पीढ़ी ने 374 वर्ष 11 माह 26 दिन तक राज्य किया


धनधर : 23 वर्ष

महर्षि : 41 वर्ष

संरछि : 50 वर्ष

महायुध: 30 वर्ष

दुर्नाथ: 28 वर्ष

जीवनराज: 45 वर्ष

रुद्रसेन: 47 वर्ष

आरिलक: 52 वर्ष

राजपाल: 36 वर्ष

सामन्त महानपाल ने राजपाल का वध करके 14 वर्ष तक राज्य किया। अवन्तिका (वर्तमान उज्जैन) के विक्रमादित्य ने महानपाल का वध करके 93 वर्ष तक राज्य किया। विक्रमादित्य का वध समुद्रपाल ने किया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 372 वर्ष 4 माह 27 दिन तक राज्य किया


समुद्रपाल: 54 वर्ष

चन्द्रपाल: 36 वर्ष

सहपाल: 11 वर्ष

देवपाल: 27 वर्ष

नरसिंहपाल: 18 वर्ष

सामपाल: 27 वर्ष

रघुपाल: 22 वर्ष

गोविन्दपाल: 27 वर्ष

अमृतपाल: 36 वर्ष

बालिपाल: 12 वर्ष

महिपाल: 13 वर्ष

हरिपाल: 14 वर्ष

सीसपाल: 11 वर्ष (कुछ ग्रंथों में सीसपाल के स्थान पर भीमपाल का उल्लेख मिलता है, सम्भव है कि उसके दो नाम रहे हों।)

मदनपाल: 17 वर्ष

कर्मपाल: 16 वर्ष

विक्रमपाल: 24 वर्ष

विक्रमपाल ने पश्चिम में स्थित राजा मालकचन्द बोहरा के राज्य पर आक्रमण कर दिया जिसमे मालकचन्द बोहरा की विजय हुई और विक्रमपाल मारा गया। मालकचन्द बोहरा की 10 पीढ़ियों ने 191 वर्ष 1 माह 16 दिन तक राज्य किया


मालकचन्द: 54 वर्ष

विक्रमचन्द: 12 वर्ष

मानकचन्द: 10 वर्ष

रामचन्द: 13 वर्ष

हरिचंद:14 वर्ष

कल्याणचन्द: 10 वर्ष

भीमचन्द: 16 वर्ष

लोवचन्द: 26 वर्ष

गोविन्दचन्द: 31 वर्ष

रानी पद्मावती: 1 वर्ष


रानी पद्मावती गोविन्दचन्द की पत्नी थीं। कोई सन्तान न होने के कारण पद्मावती ने हरिप्रेम वैरागी को सिंहासनारूढ़ किया जिसकी 4 पीढ़ियों ने 50 वर्ष 0 माह 12 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।


हरिप्रेम: 7 वर्ष

गोविन्दप्रेम: 20 वर्ष

गोपालप्रेम : 15 वर्ष

महाबाहु: 6 वर्ष

महाबाहु ने सन्यास ले लिया। इस पर बंगाल के अधिसेन ने उसके राज्य पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। अधिसेन की 12 पीढ़ियों ने 152 वर्ष 11 माह 2 दिन तक राज्य किया


अधिसेन: 18 वर्ष

विल्वसेन: 12 वर्ष

केशवसेन: 15 वर्ष

माधवसेन: 12 वर्ष

मयूरसेन: 20 वर्ष

भीमसेन: 5 वर्ष

कल्याणसेन: 4 वर्ष

हरिसेन: 12 वर्ष

क्षेमसेन: 8 वर्ष

नारायणसेन: 2 वर्ष

लक्ष्मीसेन: 26 वर्ष

दामोदरसेन: 11 वर्ष

दामोदरसेन ने उमराव दीपसिंह को प्रताड़ित किया तो दीपसिंह ने सेना की सहायता से दामोदरसेन का वध करके राज्य पर अधिकार कर लिया तथा उसकी 6 पीढ़ियों ने 107 वर्ष 6 माह 22 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।


दीपसिंह: 17 वर्ष

राजसिंह: 14 वर्ष

रणसिंह: 9 वर्ष

नरसिंह: 45 वर्ष

हरिसिंह: 13 वर्ष

जीवनसिंह: 8 वर्ष

पृथ्वीराज चौहान ने जीवनसिंह पर आक्रमण करके तथा उसका वध करके राज्य पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पृथ्वीराज चौहान की 5 पीढ़ियों ने 86 वर्ष 20 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है


पृथ्वीराज: 12 वर्ष

अभयपाल: 14 वर्ष

दुर्जनपाल: 11 वर्ष

उदयपाल: 11 वर्ष

यशपाल: 36 वर्ष

विक्रम संवत 1249 (1193 AD) में मोहम्मद गोरी ने यशपाल पर आक्रमण कर उसे प्रयाग के कारागार में डाल दिया और उसके राज्य को अधिकार में ले लिया।


 


परमार वंश

परमार वंश के गोत्र-प्रवरादि


वंश – अग्निवंश

कुल – सोढा परमार

गोत्र – वशिष्ठ

प्रवर – वशिष्ठ, अत्रि ,साकृति

वेद – यजुर्वेद

उपवेद – धनुर्वेद

शाखा – वाजसनयि

प्रथम राजधानी – उज्जेन (मालवा)

कुलदेवी – सच्चियाय माता

इष्टदेव – सूर्यदेव महादेव

तलवार – रणतरे

ढाल – हरियण

निशान – केसरी सिंह

ध्वजा – पीला रंग

गढ – आबू

शस्त्र – भाला

गाय – कवली

वृक्ष – कदम्ब,पीपल

नदी – सफरा (क्षिप्रा)

पाघ – पंचरंगी

राजयोगी – भर्तहरी

संत – जाम्भोजी

पक्षी – मयूर

प्रमुख गादी – धार नगरी


परमार वंश मध्यकालीन भारत का एक राजवंश था। परमार गोत्र सुर्यवंशी राजपूतों में आता है। इस राजवंश का अधिकार धार और उज्जयिनी राज्यों तक था। ये ९वीं शताब्दी से १४वीं शताब्दी तक शासन करते रहे।

परमार एक राजवंश का नाम है, जो मध्ययुग के प्रारंभिक काल में महत्वपूर्ण हुआ। चारण कथाओं में इसका उल्लेख राजपूत जाति के एक गोत्र रूप में मिलता है। परमार सिंधुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त परिमल ने अपनी पुस्तक ‘नवसाहसांकचरित’ में एक कथा का वर्णन किया है। ऋषि वशिष्ठ ने ऋषि विश्वामित्र के विरुद्ध युद्ध में सहायता प्राप्त करने के लिये भाबू पर्वत के अग्निकुंड से एक वीर पुरुष का निर्माण किया जिनके पूर्वज सुर्यवंशी क्षत्रिय थे । इस कारण सुर्यवंशी उज्जयिनी क्षत्रिय भी बुलाय ज। ते है। इस वीर पुरुष का नाम परमार रखा गया, जो इस वंश का संस्थापक हुआ और उसी के नाम पर वंश का नाम पड़ा। परमार के अभिलेखों में बाद को भी इस कहानी का पुनरुल्लेख हुआ है। इससे कुछ लोग यों समझने लगे कि परमारों का मूल निवासस्थान आबू पर्वत पर था, जहाँ से वे पड़ोस के देशों में जा जाकर बस गए। किंतु इस वंश के एक प्राचीन अभिलेख से यह पता चलता है कि परमार दक्षिण के राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी थे।

परमार परिवार की मुख्य शाखा नवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल से मालव में धारा को राजधानी बनाकर राज्य करती थी और इसका प्राचीनतम ज्ञात सदस्य उपेंद्र कृष्णराज था। इस वंश के प्रारंभिक शासक दक्षिण के राष्ट्रकूटों के सामंत थे। राष्ट्रकूटों के पतन के बाद सिंपाक द्वितीय के नेतृत्व में यह परिवार स्वतंत्र हो गया। सिपाक द्वितीय का पुत्र वाक्पति मुंज, जो 10वीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में हुआ, अपने परिवार की महानता का संस्थापक था। उसने केवल अपनी स्थिति ही सुदृढ़ नहीं की वरन्‌ दक्षिण राजपूताना का भी एक भाग जीत लिया और वहाँ महत्वपूर्ण पदों पर अपने वंश के राजकुमारों को नियुक्त कर दिया। उसका भतीजा भोज, जिसने सन्‌ 5000 से 1055 तक राज्य किया और जो सर्वतोमुखी प्रतिभा का शासक था, मध्युगीन सर्वश्रेष्ठ शासकों में गिना जाता था। भोज ने अपने समय के चौलुभ्य, चंदेल, कालचूरी और चालुक्य इत्यादि सभी शक्तिशाली राज्यों से युद्ध किया। बहुत बड़ी संख्या में विद्वान्‌ इसके दरबार में दयापूर्ण आश्रय पाकर रहते थे। वह स्वयं भी महान्‌ लेखक था और इसने विभिन्न विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखी थीं, ऐसा माना जाता है। उसने अपने राज्य के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में मंदिर बनवाए।


भोज की मृत्यु के पश्चात्‌ चोलुक्य कर्ण और कर्णाटों ने मालव को जीत लिया, किंतु भोज के एक संबंधी उदयादित्य ने शत्रुओं को बुरी तरह पराजित करके अपना प्रभुत्व पुन: स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। उदयादित्य ने मध्यप्रदेश के उदयपुर नामक स्थान में नीलकंठ शिव के विशाल मंदिर का निर्माण कराया था। उदयादित्य का पुत्र जगद्देव बहुत प्रतिष्ठित सम्राट् था। वह मृत्यु के बहुत काल बाद तक पश्चिमी भारत के लोगों में अपनी गौरवपूर्ण उपलब्धियों के लिय प्रसिद्ध रहा। मालव में परमार वंश के अंत अलाउद्दीन खिलजी द्वारा 1305 ई. में कर दिया गया।

परमार वंश की एक शाखा आबू पर्वत पर चंद्रावती को राजधानी बनाकर, 10वीं शताब्दी के अंत में 13वीं शताब्दी के अंत तक राज्य करती रही। इस वंश की दूसरी शाखा वगद (वर्तमान बाँसवाड़ा) और डूंगरपुर रियासतों में उट्ठतुक बाँसवाड़ा राज्य में वर्त्तमान अर्थुना की राजधानी पर 10वीं शताब्दी के मध्यकाल से 12वीं शताब्दी के मध्यकाल तक शासन करती रही। वंश की दो शाखाएँ और ज्ञात हैं। एक ने जालोर में, दूसरी ने बिनमाल में 10वीं शताब्दी के अंतिम भाग से 12वीं शताब्दी के अंतिम भाग तक राज्य किया।

राजा========


उपेन्द्र (800 – 818)

वैरीसिंह प्रथम (818 – 843)

सियक प्रथम (843 – 893)

वाकपति (893 – 918)

वैरीसिंह द्वितीय (918 – 948)

सियक द्वितीय (948 – 974)

वाकपतिराज (974 – 995)

सिंधुराज(995 – 1010)

भोज प्रथम (1010 – 1055),

समरांगण सूत्रधार के रचयिताजयसिंह प्रथम (1055 – 1060)

उदयादित्य (1060 – 1087)

लक्ष्मणदेव (1087 – 1097)

नरवर्मन (1097 – 1134)

यशोवर्मन (1134 – 1142)

जयवर्मन प्रथम (1142 – 1160)

विंध्यवर्मन (1160 – 1193)

सुभातवर्मन (1193 – 1210)

अर्जुनवर्मन I (1210 – 1218)

देवपाल (1218 – 1239)

जयतुगीदेव (1239 – 1256)

जयवर्मन द्वितीय (1256 – 1269)

जयसिंह द्वितीय (1269 – 1274)

अर्जुनवर्मन द्वितीय (1274 – 1283)

भोज द्वितीय (1283 – ?)

महालकदेव (? – 1305)

संजीव सिंह परमार (1305 – 1327)


-परमार वंश के दो महान सम्राट—-

मित्रो आज हम किसी से भी पुछते है कि राजा विक्रमादित्य और राजा भोज की प्रतिमाएँ क्यों नहीं हैं?

उनके म्यूजियम उनके स्मारक क्यों नहीं है ?

जब हम कहते हैं राजनेता गलत है पर राजनेताओं के अंध भक्त दुहाई देते हैं कि वो बहुत पहले थे ऐसा कहा जाता है,

लेकिन यह गलत है चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य और महाराजा भोज अगर ना होते तो हमारा आज नहीं होता।

मित्रो राजा विक्रमादित्य और राजा भोज की प्रतिमाएँ बनाई जाए।आज देश में ऐसे नेताओं की प्रतिमा है जो कि उस काबिल भी नहीं है।

और राजा महाराजा की बात करे तो महाराणा प्रताप शिवाजी महाराज भी महानतम यौद्धाओं में हैं,उनकी प्रतिमाएँ है,हम ने उनका तो सम्मान कर दिया पर भारतीय इतिहास के दो स्तंभ राजा विक्रमादित्य और राजा भोज जिनके उपर देश टिका हुआ है हम ने उन्हीं को भुला दिया।


======शूरवीर सम्राट विक्रमादित्य=====


अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य को एतिहासिक शासक न मानकर एक मिथक मानते हैं।

जबकि कल्हण की राजतरंगनी,कालिदास,नेपाल की वंशावलिया और अरब लेखक,अलबरूनी उन्हें वास्तविक महापुरुष मानते हैं।विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है।


उनके समय शको ने देश के बड़े भू भाग पर कब्जा जमा लिया था।विक्रम ने शको को भारत से मार भगाया और अपना राज्य अरब देशो तक फैला दिया था। उनके नाम पर विक्रम सम्वत चलाया गया। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे.विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे। राजा विक्रम उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।

इनके पिता का नाम गन्धर्वसेन था एवं प्रसिद्ध योगी भर्तहरी इनके भाई थे।विक्रमादित्य के इतिहास को अंग्रेजों ने जान-बूझकर तोड़ा और भ्रमित किया और उसे एक मिथ‍कीय चरित्र बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति का प्रतीक थे,जबकि अंग्रेजों को यह सिद्ध करना जरूरी था कि ईसा मसीह के काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।यह निर्विवाद सत्य है कि सम्राट विक्रमादित्य भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ शासक थे।


==हिन्दू हृदय सम्राट परमार कुलभूषण मालवा नरेश सम्राट महाराजा भोज ==

महाराजा भोज के जीवन में हिन्दुत्व की तेजस्विता रोम-रोम से प्रकट हुई ,इनके चरित्र और गाथाओं का स्मरण गौरवशाली हिंदुत्व का दर्शन कराता है। महाराजा भोज इतिहास प्रसिद्ध मुंजराज के भतीजे व सिंधुराज के पुत्र थे । उनका जन्म सन् 980 में महाराजा विक्रमादित्य की नगरी उज्जैनी में हुआ।राजा भोज चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के वंशज थे।पन्द्रह वर्ष की छोटी आयु में उनका राज्य अभिषेक मालवा के राजसिंहासन पर हुआ।राजा भोज ने ग्यारहवीं शताब्दी में धारानगरी (धार) को ही नही अपितु समस्त मालवा और भारतवर्ष को अपने जन्म और कर्म से गौरवान्वित किया।

महाप्रतापी राजा भोज के पराक्रम के कारण उनके शासन काल में भारत पर साम्राज्य स्थापित करने का दुस्साहस कोई नहीं कर सका.राजा भोज ने भोपाल से 25 किलोमीटर दूर भोजपूर शहर में विश्व के सबसे बडे शिवलिंग का निर्माण कराया जो आज भोजेश्रवर के नाम से प्रसिद्ध है जिसकी उंचाई 22 फीट है । राजा भोज ने छोटे बडे लाखों मंदिर बनवाये , उन्होंने हजारों तालाब बनवाये , सैकडों नगर बसाये,कई दुर्ग बनवाये और अनेकों विद्यालय बनवाये।राजा भोज ने ही भारत को नई पहचान दिलवाई उन्होंने ही इस देश का नाम हिंदू धर्म के नाम पर हिंदुस्तान रखा।राजा भोज ने कुशल शासक के रुप में जो हिन्दुओं को संगठित कर जो महान कार्य किया उससे राजा भोज के 250 वर्षो के बाद भी मुगल आक्रमणकारियों से हिंदुस्तान की रक्षा होती रही । राजा भोज भारतीय इतिहास के महानायक थे.राजा भोज भारतीय इतिहास के एकमात्र ऐसे राजा हुए, जो शौर्य एवं पराक्रम के साथ धर्म विज्ञान साहित्य तथा कला के ज्ञाता थे।राजा भोज ने माँ सरस्वती की आराधना व हिन्दू जीवन दर्शन एवं संस्कृत के प्रचार- प्रसार हेतु सन् 1034 में माँ सरस्वती मंदिर भोजशाला का निर्माण करवाया।माँ सरस्वती के अनन्य भक्त राजा भोज को माँ सरस्वती का अनेक बार साक्षातकार हुआ,माँ सरस्वती की आराधना एवं उनके साधकों की साधना के लिए स्वंय की परिकल्पना एवं वास्तु से विश्व के सर्वश्रेष्ठ मंदिर का निर्माण धार में कराया गया जो आज भोजशाला के नाम से प्रसिद्ध है । उन्होंने भोजपाल (भोपाल) में भारत का सबसे बडा तालाब का निर्माण कराया जो आज भोजताल के नाम से प्रसिद्ध है.हम इन महानायकों को भुला रहे हैं इसलिये आज हमारा देश फिर से गुलाम बन ने की दिशा में है।जाग जाओ क्षत्रिय राजपूत वीरों और समस्त धर्मनिष्ठ हिन्दूओं मान लो राजा विक्रमादित्य और राजा भोज को।


 


राठौड़ वंश


राठौर राजपूत वंश की उत्पत्ति


राठोड़ राजपूतो की उत्तपति सूर्यवंशी राजा के राठ(रीढ़) से उत्तपन बालक से हुई है इस लिए ये राठोड कहलाये, राठोरो की वंशावली मे उनकी राजधानी कर्नाट और कन्नोज बतलाई गयी है! राठोड सेतराग जी के पुत्र राव सीहा जी थे! मारवाड़ के राठोड़ उन ही के वंशज है! राव सीहा जी ने करीब 700 वर्ष पूर्व द्वारिका यात्रा के दोरानमारवाड़ मे आये और राठोड वंश की नीव रखी! राव सीहा जी राठोरो के आदि पुरुष थे !

अर्वाचीन राठोड शाखाएँ

खेडेचा, महेचा , बाडमेरा , जोधा , मंडला , धांधल , बदावत , बणीरोत , चांदावत , दुदावत , मेड़तिया , चापावत , उदावत , कुम्पावत , जेतावत , करमसोत बड़ा ,करमसोत छोटा , हल सुन्डिया , पत्तावत , भादावत , पोथल , सांडावत , बाढेल , कोटेचा , जैतमालोत , खोखर , वानर , वासेचा , सुडावत , गोगादे , पुनावत ,सतावत , चाचकिया , परावत , चुंडावत , देवराज , रायपालोत , भारमलोत , बाला , कल्लावत , पोकरना . गायनेचा , शोभायत , करनोत , पपलिया , कोटडिया ,डोडिया , गहरवार , बुंदेला , रकेवार , बढ़वाल , हतुंधिया , कन्नोजिया , सींथल , ऊहड़ , धुहडिया , दनेश्वरा , बीकावत , भादावत , बिदावत आदि……

राठोड वंश

Vansh – Suryavanshi

कश्यप ऋषि के घराने में राजा बली राठोड का वंश राठोड वंश कहलाया

ऋषि वंश राठोड की उत्पत्ति सतयुग से आरम्भ होती है

वेद – यजुर्वेद

शाखा – दानेसरा

गोत्र – कश्यप

गुरु – शुक्राचार्य

देवी – नाग्नेचिया

पर्वत – मरुपात

नगारा – विरद रंणबंका

हाथी – मुकना

घोड़ा – पिला (सावकर्ण/श्यामकर्ण)

घटा – तोप तम्बू

झंडा – गगनचुम्बी

साडी – नीम की

तलवार – रण कँगण

ईष्ट – शिव का

तोप – द्न्कालु

धनुष – वान्सरी

निकाश – शोणितपुर (दानापुर)

बास – कासी, कन्नोज, कांगडा राज्य, शोणितपुर, त्रिपुरा, पाली, मंडोवर, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़,

इडर, हिम्मतनगर, रतलाम, रुलाना, सीतामऊ, झाबुबा, कुशलगढ़, बागली, जिला-मालासी, अजमेरा आदि ठिकाना दानसेरा शाखा का है

राठोड़ों की सम्पूरण खापें और उनके ठिकाने जोधा ,कोटडिया ,गोगादेव ,महेचा ,बाड़मेरा ,पोकरणा राडधरा ,उदावत,खोखर ,खावड़ीया ,कोटेचा ,उनड़, इडरिया ,

राठोड़ों की प्राचीन तेरह खापें थी | राजस्थान में आने वाले सीहाजी राठोड दानेश्वरा खाप के राठोड़ थे | सीहाजी के वंशजो से जो खांपे चली वे निम्न प्रकार है |


1. इडरिया राठोड़ :- सोनग ( पुत्र सीहा ) ने इडर पर अधिकार जमाया | अतः इडर के नाम से सोनग के वंशज इडरिया राठोड़ कहलाये |


2. हटूकिया राठोड़ :- सोनग के वंशज हस्तीकुण्डी ( हटुंडी ) में रहे | वे हटूंडीया राठोड़ कहलाये | जोधपुर इतिहास में ओझा लिखते हे की सीहाजी से पहले हटकुण्डी में राष्ट्र कूट बालाप्रसाद राज करता रहा | उसके वंशज हटूंणडीया राठोड़ हे | परन्तु हस्तीकुण्डी शासन करने वाले राष्ट्रकूटों ( चंद्रवंशी ) का कोई वंशज नजर नहीं आता है | ( दोहठ ) राठोड़ – सीहा राठोड़ के बाद कर्मशः सोनग , अभयजी , सोहीजी , मेहपाल जी , , भारमल जी , व् चूंडारावजी हुए चूंडाराव अमरकोट के सोढा राणा सोमेश्वर के भांजे थे | इनके समय मुसलमान ने जोर लगाया की अमरकोट के सोढा हमारे से बेटी व्यवहार करें | तब चूंडाराव जो उस समय अमरकोट थे | इनकी सहायता से मुसलमान की बारातें बुलाई गयी एवं स्वयं इडर से सेना लेकर पहुंचे सोढों और राठोड़ों ने मिलकर मुसलमानों की बरातों को मार दिया | उस समय वीर चूंडराव को दू:हठ की उपाधि दी गयी थे अतः चूंडराव के वंशज दोहठ कहे गए | ये राठोड़ , अमरकोट , सोराष्ट्र , कच्छ , बनास कांठा , जालोर , बाड़मेर , जैसलमेर , बीकानेर जिलों में कहीं – कहीं निवास करते रहे है |


3. बाढ़ेल ( बाढ़ेर ) राठोड़ :- सीहाजी के छोटे पुत्र अजाजी के दो पुत्र बेरावली और बीजाजी ने द्वारका के चावड़ो को बाढ़ कर ( काट कर ) द्वारका ( ओखा मंडल ) पर अपना राज्य कायम किया | इसी कारन बेरावलजी के वंशज बाढ़ेल राठोड़ हुए | आजकल ये बाढ़ेर राठोड़ कहलाते है | गुजरात में पोसीतरा , आरमंडा , बेट द्वारका बाढ़ेर राठोड़ों के ठिकाने थे |

4. बाजी राठोड़ :- बेरावल जी के भाई बीजाजी के वंशज बाजी राठोड़ कहलाये है | गुजरात में महुआ , वडाना, आदीइनके ठिकाने हे| बाजी राठोड़ आज भी गुजरात में हि बसते है |


5. खेड़ेचा राठोड़ :- सीहा के पुत्र आस्थान ने गुहिलों से खेड़ जीता | खेड़ नाम से आश्थान के वंशज खेड़ेचा राठोड़ कहलाते है |

6. धुहड़ीया राठोड़ :- आस्थान के पुत्र धूहड़ के वंशज धुहड़ीया राठोड़ कहलाये |

7 . धांधल राठोड़ :- आस्थान के पुत्र धांधल के वंशज धांधल राठोड़ कहलाये | पाबूजी राठोड़ इसी खांप के थे | इन्होने चारणी को दीये गए वचनानुसार पणीग्रहण संस्कार को बीच में छोड़कर चारणी के गायों को बचाने के प्रयास में शत्रु से लड़ते हुए वीर गति प्राप्त की| यही पाबुजी लोक देवता के रूप में पूजे जाते है |


8. चाचक राठोड़ : – आस्थान के पुत्र चाचक के वंशज चाचक राठोड़ कहलाये |

9 . हरखावत राठोड़ :- आस्थान के पुत्र हरखा के वंशज

10. जोलू राठोड़ :- आस्थान के पुत्र जोपसा के पुत्र जोलू के वंशज

11 . सिंधल राठोड़ :- जोपसा के पुत्र सिंधल के वंशज | ये बड़े पराक्रमी हुए | इनका जेतारण पाली पर अधिकार था | जोधा के पुत्र सूजा ने बड़ी मुश्किल से उन्हें वहां से हटाया |

12. उहड़ राठोड़ :- जोपसा के पुत्र उहड़ के वंशज

13 . मुलु राठोड़ :- जोपसा के पुत्र मुलु के वंशज

14 बरजोर राठोड़ :- जोपसा के पुत्र बरजोड के वंशज

15. जोरावत राठोड़ :- जोपसा के वंशज

16. रेकवाल राठोड़ :- जोपसा के पुत्र राकाजी के वंशज है | ये मल्लारपुर , बाराबकी , रामनगर , बड़नापुर , बहराईच उतरापरदेश में है |

17. बागड़ीया राठोड़ :- आस्थान जी के पुत्र जोपसा के पुत्र रैका से रैकवाल हुए | नोगासा बांसवाड़ा के ऐक स्तम्भ लेख बैसाख वदी1361 में मालूम होता हे की रामा पुत्र वीरम सवर्ग सिधारा | ओझाजी ने इसी वीरम के वंशजों को बागड़ीया राठोड़ माना है | क्यूँ की बांसवाड़ा का क्षेत्र बागड़ कहलाता था |


18. छप्पनिया राठोड़ :- मेवाड़ से सटा हुआ मारवाड़ की सीमा पर छप्पन गाँवो का क्षेत्र छप्पन का क्षेत्र है | यहाँ के राठोड़ छप्पनिया राठोड़ कहलाये | यह खांप बागदीया राठोड़ों से निकली है | उदयपुर रियासत में कणतोड़ गाँव की जागीरी थी |


19. आसल राठोड़ :- आस्थान के पुत्र आसल के वंशज आसल राठोड़ कहलाये |

20. खोपसा राठोड़ :- आस्थान के पुत्र जोपसा के पुत्र खीमसी के वंशज |

21. सिरवी राठोड़ :- आस्थान के पुत्र धुहड़ के पुत्र शिवपाल के वंशज |

22. पीथड़ राठोड़ :- आस्थान के पुत्र पीथड़ के वंशज |

23. कोटेचा राठोड़ :- आस्थान के पुत्र धुहड़ के पुत्र रायपाल हुए | रायपाल के पुत्र केलण के पुत्र कोटा के वंशज कोटेचा हुए |बीकानेर जिले में करनाचंडीवाल , हरियाणा में नाथूसरी व् भूचामंडी , पंजाब में रामसरा आदी इनके गाँव है |


24. बहड़ राठोड़ :- धुहड़ के पुत्र बहड़ के वंशज |

25. उनड़ राठोड़ :- धुहड़ के पुत्र उनड़ के वंशज |

26. फिटक राठोड़ :- रायपाल के पुत्र केलण के पुत्र थांथी के पुत्र फिटक के वंशज फिटक राठोड़ हुए |

27. सुंडा राठोड़ :- रायपाल के पुत्र सुंडा के वंशज |

28 . महीपाल राठोड़ :- रायपाल के पुत्र महीपाल के पुत्र वंशज |

29. शिवराजोत राठोड़ :- रायपाल के पुत्र शिवराज के वंशज |

30. डांगी :- रामपाल के पुत्र डांगी के वंशज ढोलिन से शादी की अथवा इनके वंशज ढोली हुए |

31. मोहनोत :- रायपाल के पुत्र मोहन ने ऐक महाजन की पुत्री से शादी की | इस कारन उसके वंशज मुह्नोत वेश्य कहलाये मुह्नोत नेंणसी इसी ख्यात से थे |


32. मापावत राठोड़ :- रायपाल के वंशज मापा के वंशज

33. लूका राठोड़ :- रायपाल के वंशज लूका के वंशज

34. राजक:- रायपाल के वंशज रजक के वंशज

35. विक्रमायत राठोड़ :- रायपाल के पुत्र विक्रम के वंशज |

36. भोंवोत राठोड़ :- रायपाल के पुत्र भोवण के वंशज |

37. बांदर राठोड़ :- रायपाल के पुत्र कानपाल हुए | कानपाल के जालण और जालण के पुत्र छाडा के पुत्र बांदर के वंशज बांदर राठोड़ कहलाये | घड़सीसर ( बीकानेर ) राज्य बताते है |


38. ऊना राठोड़ :- रायपाल के पुत्र ऊडा के वंशज |

39. खोखर राठोड़ :- छाडा के पुत्र खोखर के वंशज | खोखर ने सांकडा , सनावड़ा आदी गाँवो पर अधिकार किया | और खोखर गाँव ( बाड़मेर ) बसाया | अलाऊधीन खिलजी ने सातल दे के समय सिवाना पर चढ़ाई की तब खोखर जी सातल दे के पक्ष में वीरता के साथ लड़े और युद्ध मे काम आये |

खोखर जिन गाँवो में रहते है :- जैसलमेर जिले में , निम्बली , कोहरा , भाडली , झिनझिनयाली , मूंगा , जेलू , खुडियाला , आस्कंद्र, भादरिया , गोपारयो, भलरीयो , जायीतरा, नदिया बड़ा , अडवाना, सांकडा ,पालवा ,सनावड़ा , खीखासरा , कस्वा चुरू – रालोत जोगलिया

बाड़मेर में – खोखर शिव , खोखर पार जोधपुर में – जुंडदिकयी, खुडियाला , खोखरी पाला , बिलाड़ा | नागोर में खोखरी पाली – बाली , गंदोग , खोखरी पाला , बिलाड़ा | विक्रमी 1788 में अहमदाबाद पर हमला किया गया | तब भी खोखारों ने नी वीरता दिखाई थी |


40. सिंहकमलोत राठोड़ :- छाडा के पुत्र सिंहमल के वंशज | अलाऊदीन के सातेलक के समय सिवाना पर चढ़ाई की थी |

41. बीठवासा उदावत राठोड़ :- रावल टीडा के पुत्र कानड़दे के पुत्र रावल के पुत्र त्रिभवन के पुत्र उदा की बीठवास जागीर में था |अतः उदा के वंशज बीठवासिया उदावत कहलाये | उदाजी के पुत्र बीरम जी बीकानेर रियासत के साहुवे गाँव से आये | जोधाजी ने उनको बीठवसिया गाँव के जागीर दी | इस गाँव के आलावा वेग्डीयो और धुनाड़ीया गाँव भी इनकी जागीरी में थे |

42. सलखावत राठोड़ :- छाडा के पुत्र टीडा के पुत्र सलखा के वंशज सल्खावत राठोड़ कहलाये

43. जैतमालोत :- सलखा के पुत्र जैतमाल के वंशज जैत्मालोत राठोड़ कहलाये |बीकानेर में कहीं कहीं निवास करते है |

44. जूजाणीया :- जैतमाल के पुत्र खेतसी के वंशज है | गाँव थापाणा इनकी जागीर में था |

45.राड़धरा राठोड़ :- जैतमाल के पुत्र खिंया ने राड़धरा पर अधिकार किया | अतः इनके वंशज राड़धरा कहलाये |


46 . महेचा राठोड़ :- सलखा राठोड़ के पुत्र मल्लिनाथ बड़े प्रसिद्ध हुए | बाड़मेर का महेवा क्षेत्र सलखा के पिता टीडा के अधिकार में था | विक्रमी संवत 1414 में मुस्लिम सेना का आक्रमण हुआ | सलखा को केद कर लिया गया | केद से छूटने के बाद विक्रमी संवत14२२ में आपने श्वसुर राणा रूपसी पड़िहार की सहायता से महेवा को वापिस जीत लिया | विक्रमी संवत 1430 में मुसलमानों का फिर आक्रमण हुआ | सलखा ने वीर गति पायी |सलखा के स्थान पर ( माला ) मल्लिनाथ राज्य का स्वामी हुआ | इन्होने मुसलमानों से सिवाना का किला जीता और अपने आपने छोटे भाई जैतमाल को दे दिया | व् छोटे भाई वीरम को खेड़ की जागीरी दे दी| नगर व् भिरड़ गढ़ के किले भी मल्लिनाथ ने अधिकार में किये | मलिनाथ शक्ति संचय कर राठोड़ राज्य का विस्तार करने और हिन्दू संस्कृति की रक्षा करने पर तुले रहे | उन्होंने मुसलमानों के आक्रमण को विफल किया | मल्लिनाथ और उनकी राणी रुपादें , नाथ संप्रदाय में दिक्सीत हुए और ये दोनों सिद्ध माने गए | मल्लिनाथ के जीवन काल में हि उनके पुत्र जगमाल को गादी मिल गयी |जगमाल भी बड़े वीर थे | गुजरात का सुल्तान तीज पर इक्कठी हुयी लड़कियों को हर ले गया | तब जगमाल अपने योधाओं के साथ गुजरात गए और सुल्तान की पुत्री गीन्दोली का हरण कर लाया तब राठोड़ों और मुसलमानों में युद्ध हुआ | इस युद्ध में जगमाल ने बड़ी वीरता दिखाई | कहा जाता हे की सुल्तान के बीबी को तो युद्ध में जगह – जगह जगमाल हि दिखयी दिया इन्ही जगमाल का महेवा पर अधिकार था | इस कारन इनके वंशज महेचा कहलाते है |जोधपुर परगने में थोब , देहुरिया , पादरडी, नोहरो आदी इनके ठिकाने है | उदयपुर रियासत में नीबड़ी व् केलवा इनकी जागीर में थे| उनकी ख्याते निम्न है


1. पातावत महेचा :- जगमाल के पुत्र रावल मंडलीक के बाद कर्मश भोजराज , बीदा, नीसल , हापा , मेघराज व् पताजी हुए | इन्ही के वंशज पातावत कहलाये जालोर और सिरोही में इनके कई गाँव है |

2. कलावत महेचा :- मेघराज के पुत्र कल्ला के वंशज

3. दूदावत महेचा :- मेघराज के पुत्र दूदा के वंशज

4. उगा :- वरसिंह के पुत्र उगा के वंशज

47 . बाड़मेरा :- मल्लिनाथ के छोटे पुत्र अरड़कमल ने बाड़मेर इलाके नाम से इनके वंशज बाड़मेरा राठोड़ कहलाये | इनके वंशज बाड़मेर में और कई गाँवो में रहते है

48. पोकरणा :- मल्लिनाथ के पुत्र जगमाल के जिन वंशजो का पोकरण इलाके में निवास हुआ | वे पोकरणा राठोड़ कहलाये इनके गाँव सांकडा , सनावड़,लूना , चौक , मोडरड़ी , गुडी आदी जैसलमेर में है

49.खाबड़ीया :- मल्लिनाथ के पुत्र जगमाल के पुत्र भारमल हुए | भारमल के पुत्र खीमुं के पुत्र नोधक के वंशज जामनगर के दीवान रहे इनके वंशज कच्छ में है | भारमल के दुसरे पुत्र माँढण के वंशज माडवी कच्छ में रहते है वंशज खाबड़ गुजरात के इलाके के नाम से खाबड़ीया कहलाये | इनके गाँव कुछ राजस्थान के बाड़मेर में रेडाणा और देदड़ीयार है कुछ घर पाकिस्तान में भी है

50. कोटड़ीया :- जगमाल के पुत्र कुंपा ने कोटड़ा पर अधिकार किया अतः कुंपा के वंशज कोटड़ीया राठोड़ कहलाये | जगमाल के पुत्र खींव्सी के वंशज भी कोटड़ीया कहलाये इनके गाँव बाड़मेर में , कोटड़ा , बलाई , भिंयाड़ इत्यादि है |

51. गोगादे :- सलखा के पुत्र वीरम के पुत्र गोगा के वंशज गोगादे राठोड़ कहलाये | केतु ( चार गाँव ) सेखला ( 15 गाँव ) खिराज ,गड़ा आदी इनके ठिकाने है

52 . देवराजोत :- बीरम के पुत्र देवराज के वंशज देवराजोत राठोड़ कहलाये | सेतरावो इनका मुख्या ठिकाना है | इसके आलावा सुवालिया आदी ठिकाने थे |

53. चाड़देवोत :- वीरम के पुत्र व् देवराज के पुत्र चाड़दे के वंशज चाड़देवोत राठोड़ कहलाये | जोधपुर परगने का देचू इनका मुख्या ठिकाना था | गीलाकोर में भी इनकी जागीरी थी |

54. जेसिधंदे :- वीरम के पुत्र जैतसिंह के वंशज

55. सतावत :- चुंडा वीरमदेवोत के पुत्र सता के वंशज

56. भींवोत :- चुंडा के पुत्र भींव के वंशज | खाराबेरा जोधपुर इनका ठिकाना था |

57. अरड़कमलोत:- चुंडा के पुत्र अरड़कमलोत वीर थे | राठोड़ों और भाटियों के शत्रुता के कारन शार्दुल भाटी जब कोडमदे मोहिल से शादी कर लोट रहा था | तब अरड़कमल ने रास्ते में युद्ध के लिए ललकारा और युद्ध में दोनों हि वीरता से लड़े शार्दुल भाटी वीरगति प्राप्त हुए और राणी कोडमदे सती हुयी | अरड़कमल भी उन घावों से कुछ दिनों बाद मर गए | इस अरड़कमल के वंशज अरड़कमल राठोड़ कहलाये |

58. रणधीरोत :- चुंडा के पुत्र रणधीर के वंशज है फेफाना इनकी जागीर थी |

59. अर्जुनोत :- राव चुंडा के पुत्र अर्जुन के वंशज |

60. कानावत :- चुंडा के पुत्र कान्हा के वंशज |

61. पूनावत :- चुंडा के पुत्र पूनपाल के वंशज है | गाँव खुदीयास इनकी जागीरी में था |

62 , जैतावत राठोड़ :- राव रणमलजी के ज्येष्ठ पुत्र अखेराज थे | इनके दो पुत्र पंचायण व् महाराज हुए | पंचायण के पुत्र जैतावत कहलाये | राठोड़ों ने जब मेवाड़ के कुम्भा से मंडोर वापिस लिया उस समय अखेराज जी ने अपना अंगूठा चीरकर खून से जोधा का तिलक किया और कहा आपको मंडोर मुबारक हो |उतर में जोधाजी ने कहा आपको बगड़ी मुबारक हो | उस समय बगड़ी (सोजत परगना )मेवाड़ से छीन लिया और बगड़ी अखेराज को प्रदान कर दी तब से यह रीती चली आई थी की जब भी जोधपुर के राजा का राजतिलक बगड़ी का ठाकुर अंगूठे के खून से राजतिलक होता |और बगड़ी ऐक बार पुनः उन्हें दी जाती |अखेराज के पोत्र जैताजी बड़े वीर थे | विक्रमी संवत 1600 में हुए सुमेल के युद्ध में शेरसाह से चालाकी से मालदेव आपने पक्ष के योधाओं को लेकर पलायन कर गए थे | परन्तु जैताजी और कुंपा जी ने अदभुत पराक्रम दिखाते हुए शेरशाह की सेना का मुकाबला किया | दोनों द्वारा अनेको शत्रुओं को धरा शाही कर वीरगति पाने पर शेरशाह उनकी मृत देह को देखकर दंग रह गया था | जैतावत ने समय समय पर मारवाड़ की रक्षा और राठोड़ों की आन के लिए रणभूमि में तलवारें बजायी थी | मारवाड़ में इनका प्रमुख ठिकाना बगड़ी था तथा दूसरा खोखरा| दोनों ठिकानो को हाथ का कुरव और ताज्मी का सम्मान प्राप्त था |


1. पिरथीराजोत जैतावत :-जैताजी के पुत्र प्रथ्वीराज के वंशज कहलाये | बगड़ी मारवाड़ और सोजत खोखरो , बाली इनके ठिकाने रहे |

2. आसकरनोत जैतावत :- जैताजी के पोत्र आसकरण देईदानोत के वंशज आसकरनोत जैतावत है | मारवाड़ में थावला , आलासण, रायरो बड़ो, सदा मणी, लाबोड़ी , मुरढावों , आदी ठिकाने इनके थे |

3. भोपपोत जैतावत :- जैताजी के पुत्र देई दानजी के पुत्र भोपत के वंशज भोपपोत जैतावत कहलाते है | मारवाड़ में खांडो देवल ,रामसिंह को गुडो आदी ठिकाने इनके है |


63. कलावत राठोड़ :- राव रिड़मल के पुत्र अखेराज इनके पुत्र पंचारण के पुत्र कला के वंशज कलावत राठोड़ कहलाये | कलावत राठोड़ों के मारवाड़ में हूँण व् जाढण दो गाँवो के ठिकाने थे |

64. भदावत:- राव रणमल के पुत्र अखेराज के बाद क्रमश पंचायत व् भदा हुए | इन्ही भदा के वंशज भदावत राठोड़ कहलाये | देछु जालोर के पास तथा खाबल व् गुडा सोजत के पास के मुख्या ठिकाने थे |

65. कुम्पावत :- मंडोर के रणमल जी के पुत्र अखेराज के दों पुत्र पंचायण व् महाराज हए |महाराज के पुत्र कुम्पा के वंशज कुंपावत राठोड़ कहलाये | मारवाड़ का राज्य ज़माने में कुम्पा व् पंचायण के पुत्र जेता का महत्व पूरण योगदान रहा था | चितोड़ से बनवीर को हटाने में भी कुंपा की महत्वपूरण भूमिका थी | मालदेव ने वीरम का जब मेड़ता से हटाना चाहा , कुम्पा ने मालदेव का पूरण साथ लेकर इन्होने अपना पूरण योग दिया | मालदेव ने वीरम से डीडवाना छीना तो कुंपा को डीडवाना मिला | मालदेव की 1598 विक्रमी में बीकानेर विजय करने में कुंपा की महत्वपूरण भूमिका थी | शेरशाह ने जब मालदेव पर आक्रमण किया और मालदेव को अपने सरदारों पर अविश्वास हुआ तो उन्होंने अपने साथियों सहित युद्ध भूमि छोड़ दी परन्तु जेता व् कुम्पा ने कहा धरती हमारे बाप की दादाओं के शोर्य से प्राप्त हुयी है | हम जीवीत रहते उसे जाने नहीं देंगे | दोनों वीरों ने शेरशाह की सेना से टक्कर ली अद्भुत शोर्य दिखाते हुए मात्रभूमि की रक्षार्थ बलिदान हो गए | उनकी बहादुरी से प्रभावित होकर शेरशाह के मुख से यह शब्द निकले पड़े ‘ मेने मुठ्ठी भर बाजरे के लिए दिल्ली सलतनत खो दी थी | यह युद्ध सुमेल के पास चेत्र सुदी ५ विक्रमी संवत 1600 इसवी संवत 1544 में हुआ | कुंपा के 8 पुत्र थे | माँडण को अकबर ने आसोप की जागीरी डी थी | आसोप कुरव कायदे में प्रथम श्रेणी का ठिकाना था |दुसरे पुत्र प्रथ्वीराज सुमेल युद्ध में मारे गए थे | उनके पुत्र महासिंह को बतालिया व् ईशरदास को चंडावल आदी के ठिकाने मिले थे |रामसिंह सुमेल युद्ध में मारे गए थे | उनके वंशजों को वचकला ठिकाना मिला | उनके पुत्र प्रताप सिंह भी सुमेल युद्ध में मारे गए |

मांडण के पुत्र खीवकर्ण ने कई युद्ध में भाग लिया वे बादशाह अकबर के मनसबदार थे | सूरसिंह जोधपुर के साथ दक्षिण के युधों में लड़े और बूंदी के साथ हुए युद्ध में काम आये |

इनके पुत्र किशनसिंह ने गजसिंह जोधपुर के साथ कई युध्दों में भाग लिया किशन सिंह ने शाहजहाँ के समुक्ख लिहत्थे नाहर को मारा |अतः ईनका नाम नाहर खां भी हुआ | विक्रमी संवत 1737 में नाहर खां ने पुष्कर में वराह मंदिर पर हमला किया | 6 अन्य कुम्पाव्तों सहित नाहर खां के पुत्र सूरज मल वहीँ काम आये | सूरज मल जी के छोटे भाई जैतसिंह दक्षिण के युद्ध में विक्रमी 1724 में काम आये| आसोप के महेशदासजी अनेक युद्धों में लड़े और मेड़ता युध्द में वीर गति पायी |


1. महेशदासोत कुम्पावत:- विक्रमी संवत 1641 में बादशाह ने सिरोही के राजा सुरतान को दंड देने मोटे राजा उदयसिंह को भेजा |इस युध् में महेशदास के पुत्र शार्दूलसिंह ने अद्भुत पराक्रम दिखाया और वहीँ रणखेत में रहे | अतः उनके वंशज भावसिंह को 1702विक्रमी में कटवालिया के अलावा सिरयारी बड़ी भी उनका ठिकाना था | ऐक ऐक गाँव के भी काफी ठिकाने थे |

2. इश्वरदासोत कुंपावत :- कुंपा के पुत्र इश्वरदास के वंशज कहलाये | इनका मुख्या ठिकाना चंडावल था | यह हाथ कुरब का ठिकाना था | इश्वरदास के वंशज चाँद सिंह को महाराजा सूरसिंह ने 1652 विक्रमी में प्रदान किया था | 1658 ईस्वी के धरमत के युद्ध में चांदसिंह के पुत्र गोर्धनदास युद्ध में घोड़ा उठाकर शत्रुओं को मार गिराया और स्वयं भी काम आये | इस ठिकाने के नीचे 8अन्य गाँव थे | राजोसी खुर्द , माटो ,सुकेलाव इनके ऐक ऐक गाँव ठिकाने है |

3. मांडनोत कुम्पावत:- कुम्पाजी के बड़े पुत्र मांडण के वंशज माँडनोत कहलाये | इनका मुख्या ठिकाना चांदेलाव था | जिसको माँडण के वंशज छत्र सिंह को विजय सिंह ने इनायत किया | इनका दूसरा ठिकाना रुपाथल था | जगराम सिंह को विक्रमी में गजसिंह पूरा का ठिकाना भी मिला | 1893 में वासणी का ठिकाना मानसिंह ने इनायत किया | लाडसर भी इनका ठिकाना था | यहाँ के रघुनाथ सिंह , अभयसिंह द्वारा बीकानेर पर आक्रमण करने के समय हरावल में काम आये | जोधपुर रियासत में आसोप , गारासणी ,सर्गियो , मीठड़ी आदी , इनके बड़े ठिकाने थे |

4. जोधसिंहोत कुम्पावत:- कुम्पाजी के बाद क्रमश माँडण , खीवकण , किशनसिंह , मुकुन्दसिंह , जैतसिंह , रामसिंह , व् सरदारसिंह हुए |सरदार सिंह के पुत्र जोधसिंह ने महाराजा अभयसिंह जोधपुर की तरह अहमदाबाद के युद्ध में अच्छी वीरता दिखाई | महराजा ने जोधसिंह को गारासण खेड़ा, झबरक्या और कुम्भारा इनायत दिया |इनके वंशज कहलाये जोधसिन्होत

5.महासिंह कुम्पावत :- कुम्पाजी के पुत्र महासिंह के वंशज महासिंहोत कहलाते है \ महाराजा अजीतसिंह ने हठ सिंह फ़तेह सिंह को सिरयारी का ठिकाना इनायत दिया | 1847 विक्रमी में सिरयारी के केशरी सिंह मेड़ता युद्ध में काम आये | सिरयारी पांच गाँवो का ठिकाना था |

6. उदयसिंहोत कुंपावत :- कुम्पाजी के चोथे पुत्र उदयसिंह के वंशज उदयसिंहोत कुम्पावत कहलाते है | उदयसिंह के वंशज छतरसिंह को विक्रमी 1831 में बूसी का ठिकाना मिला | विक्रमी संवत 1715 के धरमत के युद्ध में उदयसिंह के वंशज कल्याण सिंह घोड़ा आगे बढाकर तलवारों की रीढ़ के ऊपर घुसे और वीरता दिखाते हुए काम आये | यह कुरब बापसाहब का ठिकाना था |चेलावास ,मलसा , बावड़ी , हापत, सीहास, रढावाल , मोड़ी ,आदी ठिकाने छोटे ठिकाने थे |

7.तिलोकसिन्होत कुम्पावत:- कूम्पा के सबसे छोटे पुत्र तिलोक सिंह के वंशज तिलोकसिन्होत कूम्पावत कहलाये | तिलोकसिंह ने सूरसिंह जोधपुर की तरह से किशनगढ़ के युद्ध में वीरगति प्राप्त की | इस कारन तिलोक सिंह के पुत्र भीमसिंह को घणला का ठिकाना सूरसिंह जोधपुर ने विक्रमी 1654 में इनायत किया |


66. जोधा राठोड़ :- राव रिड़मल के पुत्र जोधा के वंशज जोधा राठोड़ कहलाये | जोधा राठोड़ों की निम्न खांप है |

1. बरसिन्होत जोधा :- जोधा की सोनगरी राणी के पुत्र बरसिंह के वंशज बरसिन्होत जोधा कहलाये |बरसिंह अपने भाई दुदा के साथ मेड़ते रहे | परन्तु मुसलमानों ने उन्हें मेड़ते से निकाल दिया | मालवा के झबुवा में बरसिन्होत जोधा राठोड़ों का राज्य था |

2. रामावत जोधा :- जोधपुर के शासक जोधा के बाद क्रमश बरसिंह आसकरण हुए | आसकरण के पोत्र रामसिंह ने बांसवाड़ा की गद्दी के लिए चौहानों और राठोड़ों के बीच युद्ध विक्रमी 1688 में वीरता तथा वीरगति को प्राप्त हुए | रामसिंह के तेरह पुत्र थे | जो रामावत राठोड़ कहलाये | रामसिंह के तीसरे पुत्र जसवंतसिंह के जयेष्ट पुत्र अमरसिंह को साठ गाँवो सहित खेड़ा की जागीरी मिली तो रतलाम राज्य में था | यह अंग्रेजी सरकार द्वार कुशलगढ़ बांसवाडा के नीचे कर दिया गया | विक्रमी संवत 1926 में कुशलगढ़ बांसवाडा के नीचे कर दिया |

3. भारमलोत जोधा :- जोधा की हूलणी राणी के पुत्र भारमल के वंशज भारमलोत जोधा कहलाये | इनके वंशज झाबुआ राज्य में निवास करते है |

4. शिवराजोत जोधा :- जोधा की बघेली राणी के पुत्र शिवराज

पुरु वंश


मित्रों आज हम आपको प्राचीन चंद्रवंशी क्षत्रिय “पुरु वंश,इसकी शाखा हरिद्वार क्षत्रिय” के बारे में जानकारी देंगे और पुरुवंशी राजपूत राजा पोरस द्वारा विश्वविजेता सिकंदर को दी गई करारी पराजय के बारे में विस्तार से जानकारी देंगे……….

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पुरु वंश का परिचय और गोत्र प्रवर—-

चंद्रवंशी महाराजा ययाति के पुत्र पुरु के वंशज पुरु,पौर,पौरववंशी वंशी क्षत्रिय कहलाते हैं,इस वंश के महाराजा मतिनार सूर्यवंशी सम्राट मान्धाता के नाना थे,महाराजा पुरु से एक शाखा कुरु वंश की चली,इनसे चन्द्रवंश की अन्य शाखाएँ भी चली,एक शाखा बाद तक पुरु या पौरव वंशी कहलाती रही…

गोत्र–भारद्वाज

प्रवर तीन–भारद्वाज,ब्रह्स्पतय,अंगिरस

वेद–यजुर्वेद

शाखा–वाजसनेयी

नदी–महेंद्र तनया(सतलुज)

वृक्ष–वट

छत्र–मणिक मुक्त स्वर्ण छत्र

ध्वजा–लाल झंडे पर चंद्रमा का चिन्ह

शस्त्र–खडग

परम्परा–विजयादशमी को खडग पूजन होता है

शाखाएँ–हरिद्वार क्षत्रिय राजपूत,कटोच राजपूत,पुरी(खत्री)

गद्दी एवं राज्य–प्रतिष्ठानपुर,पंजाब आदि

वर्तमान निवास–पाकिस्तान,पंजाब,आजमगढ़ एवं बहुत कम संख्या में बुलंदशहर,मेरठ में भी मिलते हैं,पंजाब और यूपी में कहीं कहीं मिलने वाले भारद्वाज राजपूत भी संभवत: पुरु अथवा पौरववंशी राजपूत ही हैं.

प्रसिद्ध पुरु अथवा पौरवंशी–विश्वविजेता यवन सिकन्दर को हराने वाले वीर पुरुवंशी राजा परमानन्द अथवा पुरुषोत्तम


पुरुवंश की शाखा हरिद्वार क्षत्रिय———

गोत्र–भार्गव,प्रवर तीन–भार्गव,निलोहित,रोहित

यह पुरु वंश की उपशाखा है,पृथ्वीराज चौहान के समय इस वंश के आदि पुरुष राव हंसराम पंजाब से अपने परिवार के साथ हरिद्वार आकर बसे थे,उस समय यहाँ राजा चन्द्रपुंडीर पृथ्वीराज चौहान के सामंत के रूप में शासन कर रहे थे,इन्होने राव हंसराम को जागीर प्रदान की और हरिद्वार में पुरु वंश की शाखा का विस्तार होने लगा,बाद में इस इलाके में तुर्कों का दबाव होने के कारण पुरुवंशी क्षत्रिय यहाँ से पलायन कर पूर्वी क्षेत्र में चले गए और आजकल यूपी के आजमगढ़ के आसपास मिलते हैं,हरिद्वार से आने के कारण इन्हें हरिद्वार क्षत्रिय राजपूत वंश कहा जाने लगा…..


पाकिस्तान के पंजाब क्षेत्र में कई मुस्लिम राजपूत वंश जो खुद को चन्द्रवंशी बताते हैं उन वंशो का अस्तित्व भारत के हिन्दू चंद्रवंशी राजपूतो में नहीं मिलता है,न ही अलग से 36 वंशो की किसी भी सूची में इनका नाम मिलता है.चूंकि सिकन्दर के हमले के समय पुरुवंश का शासन पंजाब और भारत के सीमावर्ती क्षेत्र में था इसलिए हो सकता है ये पुरुवंशी क्षत्रियों के ही वंशज हों…..


यूनानी विश्वविजेता सिकन्दर(Alexander) का भारत पर आक्रमण एवं पुरुवंशी राजा द्वारा उसकी पराजय


सिकन्दर(Alexander) का परिचय


प्राचीन काल में भारतीय आर्यों की एक शाखा एशिया पार कर आज के यूरोप,यूनान,रोम में बस गई थी,पुराणों और अन्य भारतीय ग्रंथो में यवनों का परिचय व्रात्य क्षत्रियों के रूप में होता है जिससे यवन प्राचीन आर्यों की शाखा सिद्ध होती है.

सिकन्दर(Alexander) यूनान के उत्तर में स्थित मकदूनिया(mecedoniya) के बादशाह फिलिप के पुत्र थे.मात्र बीस वर्ष की आयु में सिकन्दर बादशाह बन गए,प्राचीन काल से ईरान और यूनान के बीच शत्रुता चली आ रही थी,सिकन्दर(Alexander) ने विश्वविजेता बनने का प्रण लिया,और बड़ी सेना के साथ अपनी विजय यात्रा प्रारम्भ कर दी,

उस समय यूरोप में यूनान,रोम को छोडकर शेष जगह सभ्यता न के बराबर थी,और ज्ञात प्राचीन सभ्यताएँ एशिया महाद्वीप,मिस्र, में ही स्थित थी,इसलिए सिकन्दर(Alexander) ने सेना लेकर पूर्व का रूख किया,थीव्स,मिस्र इराक,मध्य एशिया को जीतता हुआ ईरान पहुंचा जहाँ क्षर्याश का उतराधिकारी दारा शासन कर रहा था,उसने दारा को हराकर उसके महल को आग लगा दी,और इस प्रकार क्षर्याश द्वारा एथेंस को जलाए जाने का बदला लिया.

इसके बाद वो आगे बढकर हिरात,काबुल,समरकंद,को जीतता हुआ सिंध नदी की उत्तरी घाटी तक पहुँच गया.

जब सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार किया तो भारत में उत्तरी क्षेत्र में तीन राज्य थे-झेलम नदी के चारों ओर राजा अम्भि का शासन था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी..पौरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था.तीसरा राज्य अभिसार था जो कश्मीरी क्षेत्र में था.

पुरु अथवा पौरस का परिचय—–


यूनान के इतिहास लेखक सिकन्दर से युद्ध करने वाले भारतीय राजा का नाम अपनी भाषा पोरस अथवा पुरु बताते हैं,वस्तुत: यह उसका नाम नहीं बल्कि पुरुवंश का परिचायक है,कटोच इतिहास में इस वीर राजा का नाम परमानन्द कटोच बताया जाता है,तथा खत्री जाति के जानकार इसका नाम पुरुषोत्तम खुखेरीयान बताते हैं,तथा इनके वंशज खत्रियो में पुरी कहलाते बताए जाते हैं,

हम बता ही चुके हैं कि कटोच राजपूत भी अत्यंत प्राचीन चंद्रवंशी क्षत्रिय हैं,संभवत कटोच भी चंद्रवंशी पुरु के वंशज हो सकते हैं,उस समय सम्भवत: खत्री जाति क्षत्रियों से प्रथक नहीं हुई थी,तो संभव है कि पुरु वंशी राजा परमानन्द अथवा पुरुषोत्तम आज के पुरुवंशी (पौरववंशी) राजपूतो,कटोच राजपूत और पुरी खत्रीयों के साझे पूर्वज हों……

पुरु वंशी राजा पोरस(यूनानी इतिहास लेखको द्वारा दिया गया नाम) का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था…..

पोरस और सिकन्दर का युद्ध——–

जब सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार किया तो भारत में उत्तरी क्षेत्र में तीन राज्य थे-झेलम नदी के चारों ओर राजा अम्भि का शासन था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी..पौरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था.तीसरा राज्य अभिसार था जो कश्मीरी क्षेत्र में था.

अम्भि(यह भी संभवत राजा का नाम न होकर उसके वंश का नाम था जिसको आज के आभीर या अहीर जाति माना जा सकता है) का पौरस से पुराना बैर था इसलिए सिकन्दर के आगमण से अम्भि खुश हो गया और अपनी शत्रुता निकालने का उपयुक्त अवसर समझा..अभिसार के लोग तटस्थ रह गए..इस तरह पौरस ने अकेले ही सिकन्दर तथा अम्भि की मिली-जुली सेना का सामना किया..

“प्लूटार्च” के अनुसार सिकन्दर की बीस हजार पैदल सैनिक तथा पन्द्रह हजार अश्व सैनिक पौरस की युद्ध क्षेत्र में एकत्र की गई सेना से बहुत ही अधिक थी..सिकन्दर की सहायता फारसी सैनिकों ने भी की थी..कहा जाता है कि इस युद्ध के शुरु होते ही पौरस ने महाविनाश का आदेश दे दिया उसके बाद पौरस के सैनिकों ने तथा हाथियों ने जो विनाश मचाना शुरु किया कि सिकन्दर तथा उसके सैनिकों के सर पर चढ़े विश्वविजेता के भूत को उतार कर रख दिया..पोरस के हाथियों द्वारा यूनानी सैनिकों में उत्पन्न आतंक का वर्णन कर्टियस ने इस तरह से किया है–“इनकी तुर्यवादक ध्वनि से होने वाली भीषण चीत्कार न केवल घोड़ों को भयातुर कर देती थी जिससे वे बिगड़कर भाग उठते थे अपितु घुड़सवारों के हृदय भी दहला देती थी..इन पशुओं ने ऐसी भगदड़ मचायी कि अनेक विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके.उन पशुओं ने कईयों को अपने पैरों तले रौंद डाला और सबसे हृदयविदारक दृश्य वो होता था जब ये स्थूल-चर्म पशु अपनी सूँड़ से यूनानी सैनिक को पकड़ लेता था,उसको अपने उपर वायु-मण्डल में हिलाता था और उस सैनिक को अपने आरोही के हाथों सौंप देता था जो तुरन्त उसका सर धड़ से अलग कर देता था.इन पशुओं ने घोर आतंक उत्पन्न कर दिया था”…..इसी तरह का वर्णन “डियोडरस” ने भी किया है –विशाल हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए..उन्होंने अपने पैरों तले बहुत सारे सैनिकों की हड्डियाँ-पसलियाँ चूर-चूर कर दी.हाथी इन सैनिकों को अपनी सूँड़ों से पकड़ लेते थे और जमीन पर जोर से पटक देते थे..अपने विकराल गज-दन्तों से सैनिकों को गोद-गोद कर मार डालते थे…अब विचार करिए कि डियोडरस का ये कहना कि उन हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए ये क्या सिद्ध करता है..फिर “कर्टियस” काये कहना कि इन पशुओं ने आतंक मचा दिया था ये क्या सिद्ध करता है…?

एक और विद्वान ई.ए. डब्ल्यू. बैज का वर्णन देखिए—-उनके अनुसार “झेलम के युद्ध में सिकन्दर की अश्व-सेना का अधिकांश भाग मारा गया था.सिकन्दर ने अनुभव कर लिया कि यदि अब लड़ाई जारी रखूँगा तो पूर्ण रुप से अपना नाश कर लूँगा.अतः सिकन्दर ने पोरस से शांति की प्रार्थना की -“श्रीमान पोरस मैंने आपकी वीरता और सामर्थ्य स्वीकार कर ली है..मैं नहीं चाहता कि मेरे सारे सैनिक अकाल ही काल के गाल में समा जाय.मैं इनका अपराधी हूँ,….और भारतीय परम्परा के अनुसार ही पोरस ने शरणागत शत्रु का वध नहीं किया””.ये बातें किसी भारतीय द्वारा नहीं बल्कि एक विदेशी द्वारा कही गई है..

इसके बाद सिकन्दर को पोरस ने उत्तर मार्ग से जाने की अनुमति नहीं दी.विवश होकर सिकन्दर को उस खूँखार जन-जाति के कबीले वाले रास्ते से जाना पड़ा,इस क्षेत्र में कठ जनजाति(संभवत आज के काठी क्षत्रिय,मालव,राष्ट्रिक(राठौड़,कम्बोज,दहियक,आदि ने भी सिकन्दर का डटकर सामना किया.जिससे लड़ते लड़ते सिकन्दर इतना घायल हो गया कि अंत में उसे प्राण ही त्यागने पड़े..इस विषय पर “प्लूटार्च” ने लिखा है कि मलावी नामक भारतीय जनजाति बहुत खूँखार थी..इनके हाथों सिकन्दर के टुकड़े-टुकड़े होने वाले थे लेकिन तब तक प्यूसेस्तस और लिम्नेयस आगे आ गए.इसमें से एक तो मार ही डाला गया और दूसरा गम्भीर रुप से घायल हो गया…तब तक सिकन्दर के अंगरक्षक उसे सुरक्षित स्थान पर लेते गए..

स्पष्ट है कि पोरस के साथ युद्ध में तो इनलोगों का मनोबल टूट ही चुका था रहा सहा कसर इन जनजातियों ने पूरी कर दी थी..अब इनलोगों के अंदर ये तो मनोबल नहीं ही बचा था कि किसी से युद्ध करे पर इतना भी मनोबल शेष ना रह गया था कि ये समुद्र मार्ग से लौटें…क्योंकि स्थल मार्ग के खतरे को देखते हुए सिकन्दर ने समुद्र मार्ग से जाने का सोचा और उसके अनुसंधान कार्य के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेज भी दी पर उन लोगों में इतना भी उत्साह शेष ना रह गया था फलतः वे बलुचिस्तान के रास्ते ही वापस लौटे….

इतिहासकारों द्वारा वीर पोरस के साथ किया गया अन्याय——-

अफसोस की ही बात है कि इस तरह के वर्णन होते हुए भी लोग यह दावा करते हैं कि सिकन्दर ने पौरस को पकड़ लिया गया और उसके सेना को शस्त्र त्याग करने पड़े…

जितना बड़ा अन्याय और धोखा इतिहासकारों ने महान पौरस के साथ किया है उतना बड़ा अन्याय इतिहास में शायद ही किसी के साथ हुआ होगा।एक महान नीतिज्ञ,दूरदर्शी,शक्तिशाली वीर विजयी राजा को निर्बल और पराजित राजा बना दिया गया….चूकि सिकन्दर पूरे यूनान,मिस्र,ईरान,ईराक,बैक्ट्रिया आदि को जीतते हुए आ रहा था इसलिए भारत में उसके पराजय और अपमान को यूनानी इतिहासकार सह नहीं सके और अपने आपको दिलासा देने के लिए अपनी एक मन-गढंत कहानी बनाकर उस इतिहास को लिख दिए जो वो लिखना चाह रहे थे…. भारतीय इतिहासकारों का दुर्भाग्य देखिये कि उन्होंने भी बिना सोचे-समझे उसी मनगडंथ यूनानी इतिहास को नकल कर लिख दिया…

कुछ हिम्मत ग्रीक के फिल्म-निर्माता ओलिवर स्टोन ने दिखाई है जो उन्होंने कुछ हद तक सिकन्दर की हार को स्वीकार किया है..फिल्म में दिखाया गया है कि एक तीर सिकन्दर का सीना भेद देती है और इससे पहले कि वो शत्रु के हत्थे चढ़ता उससे पहले उसके सहयोगी उसे ले भागते हैं.इस फिल्म में ये भी कहा गया है कि ये उसके जीवन की सबसे भयानक त्रासदी थी और भारतीयों ने उसे तथा उसकी सेना को पीछे लौटने के लिए विवश कर दिया..चूँकि उस फिल्म का नायक सिकन्दर है इसलिए उसकी इतनी सी भी हार दिखाई गई है तो ये बहुत है,नहीं तो इससे ज्यादा सच दिखाने पर लोग उस फिल्म को ही पसन्द नहीं करते..वैसे कोई भी फिल्मकार अपने नायक की हार को नहीं दिखाता है…….

पोरस की महानता का एक और उदाहरण देखिए–जब सिकन्दर ने पोरस के राज्य पर आक्रमण किया तो पोरस ने सिकन्दर को अकेले-अकेले यानि द्वन्द युद्ध का निमंत्रण भेजा ताकि अनावश्यक नरसंहार ना हो और द्वंद्व युद्ध के जरिए ही निर्णय हो जाय पर इस वीरतापूर्ण निमंत्रण को सिकन्दर ने स्वीकार नहीं किया…

अब देखिए कि भारतीय बच्चे क्या पढ़ते हैं इतिहास में——-


“सिकन्दर ने पौरस को बंदी बना लिया था..उसके बाद जब सिकन्दर ने उससे पूछा कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाय तो पौरस ने कहा कि उसके साथ वही किया जाय जो एक राजा के साथ किया जाता है अर्थात मृत्यु-दण्ड..सिकन्दर इस बात से इतना अधिक प्रभावित हो गया कि उसने वो कार्य कर दिया जो अपने जीवन भर में उसने कभी नहीं किए थे..उसने अपने जीवन के एक मात्र ध्येय,अपना सबसे बड़ा सपना विश्व-विजेता बनने का सपना तोड़ दिया और पौरस को पुरस्कार-स्वरुप अपने जीते हुए कुछ राज्य तथा धन-सम्पत्ति प्रदान किए..तथा वापस लौटने का निश्चय किया और लौटने के क्रम में ही उसकी मृत्यु हो गई..!

ये कितना बड़ा तमाचा है उन भारतीय इतिहासकारों के मुँह पर कि खुद विदेशी ही ऐसी फिल्म बनाकर सिकंदर की हार को स्वीकार कर रहे रहे हैं और हम अपने ही वीरों का इसतरह अपमान कर रहे हैं.!!


अब निर्णय करिए कि पोरस तथा सिकन्दर में विश्व-विजेता कौन था..? दोनों में वीर कौन था..?दोनों में महान कौन था..?

भारतीय इतिहासकारों ने तो पोरस को इतिहास में स्थान देने योग्य समझा ही नहीं है.इतिहास में एक-दो जगह इनका नाम आ भी गया तो बस सिकन्दर के सामने बंदी बनाए गए एक निर्बल निरीह राजा के रुप में…..जो राष्ट्र वीरों का इस तरह अपमान करेगा क्या वो राष्ट्र ज्यादा दिन तक टिक पाएगा?


गौड़ क्षत्रिय राजवंश


गौड़ क्षत्रिय भगवान श्रीराम के छोटे भाई भरत के वंशज हैं। ये विशुद्ध सूर्यवंशी कुल के हैं। जब श्रीराम अयोध्या के सम्राट बने तब महाराज भरत को गंधार प्रदेश का स्वामी बनाया गया। महाराज भरत के दो बेटे हुये तक्ष एवं पुष्कल जिन्होंने क्रमशः प्रसिद्द नगरी तक्षशिला (सुप्रसिद्ध विश्वविधालय) एवं पुष्कलावती बसाई (जो अब पेशावर है)। एक किंवदंती के अनुसार गंधार का अपभ्रंश गौर हो गया जो आगे चलकर राजस्थान में स्थानीय भाषा के प्रभाव में आकर गौड़ हो गया। महाभारत काल में इस वंश का राजा जयद्रथ था। कालांतर में सिंहद्वित्य तथा लक्ष्मनाद्वित्य दो प्रतापी राजा हुये जिन्होंने अपना राज्य गंधार से राजस्थान तथा कुरुक्षेत्र तक विस्तृत कर लिया था। पूज्य गोपीचंद जो सम्राट विक्रमादित्य तथा भृतहरि के भांजे थे इसी वंश के थे। बाद में इस वंश के क्षत्रिय बंगाल चले गए जिसे गौड़ बंगाल कहा जाने लगा। आज भी गौड़ राजपूतों की कुल देवी महाकाली का प्राचीनतम मंदिर बंगाल में है जो अब बंगलादेश में चला गया है।


बंगाल के गौड़

बंगाल में गौड़ राजपूतों का लम्बे समय तक शासन रहा। चीनी यात्री ह्वेन्शांग के अनुसार शशांक गौड़ की राजधानी कर्ण-सुवर्ण थी जो वर्तमान में झारखण्ड के सिंहभूमि के अंतर्गत आता है। इससे पता चलता है कि गौड़ साम्राज्य बंगाल (वर्तमान बंगलादेश समेत) कामरूप (असाम) झारखण्ड सहित मगध तक विस्तृत था। गौड़ वंश के प्रभाव के कारण ही इस क्षेत्र को गौड़ बंगाल कहा जाने लगा । शशांक गौड़ इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था जो सम्राट हर्षवर्धन का समकालीन था तथा सम्पूर्ण भारत वर्ष पर शासन करने की तीव्र महत्वकांक्षा रखता था। शशांक गौड़ ने हर्षवर्धन के भाई प्रभाकरवर्धन का वध किया था। इसके बाद एक युद्ध में हर्षवर्धन ने शशांक गौड़ को पराजित किया और उसकी महत्वकांक्षाओं को बंगाल तक ही सीमित कर दिया। शशांक गौड़ के बाद इस वंश का पतन हो गया। बाद में इसी वंश के किसी क्षत्रिय ने गौड़ बंगाल में समृद्ध एवं शक्तिशाली पालवंश की नींव रखी। पाल वंश के अनेक शिलालेखों तथा अन्य दस्तावेजों से प्रमाणित होता है कि ये विशुद्ध सूर्यवंशी थे। लेकिन बोद्ध धर्म को प्रश्रय देने के कारण ब्राह्मणवादियों ने चन्द्रगुप्त तथा अशोक महान की तरह इन्हें भी शुद्र घोषित करने का प्रयास किया है। सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत कई राज्यों में बंट गया और अगले 100 वर्षों तक कन्नौज पर अधिपत्य के विभिन्न क्षत्रिय राजाओं के बीच संघर्ष होता रहा क्यूंकि मगध के पतन के बाद भारतवर्ष का नया सत्ता शीर्ष कन्नौज बन चूका था तथा कन्नौज अधिपति ही देश का सम्राट कहलाता था। कन्नौज के लिए हुये इस संघर्ष में शामिल तत्कालीन भारत के प्रमुख तीन राजवंशों में गुर्जर प्रतिहार, राष्ट्रकूट के अलावा बंगाल का पाल वंश(गौड़) था। उस समय चोथी शक्ति के रूप में बादामी के चालुक्य (सोलंकी) तेजी से उभर रहे थे। पाल वंश के पतन के बाद पर्शियन आक्रान्ता बख्तियार खिलजी ने जब बंगाल पर हमले किये और उसे तहस नहस कर दिया तब गौड़ राजपूतों का बड़ी संख्या में बंगाल से राजस्थान की तरफ पलायन हुआ।


राजस्थान में गौड़ राजपूत

राजस्थान में गौड़ प्राचीन काल से ही रहते आये है, मारवाड़ क्षेत्र में एक क्षेत्र आज भी गौड़वाड़ व गौड़ाटी कहलाता है, जो कभी गौड़ राजपूतों के अधिकार क्षेत्र में रहा और वहां वे निवास करते थे। राजपूत वंशावली के अनुसार सबसे पहले सीताराम गौड़ बंगाल से राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में आये। यही से बाहरदेव व नाहरदेव दो गौड़ कन्नौज सम्राट नागभट्ट द्वितीय के पास पहुंचे। जिनको नागभट्ट ने कालपी व नार (कानपुर) क्षेत्र जागीर में दिया। इन्हीं के वंशज आज उत्तर प्रदेश के इटावा बदायूं, कन्नौज, मोरादाबाद अलीगढ में निवास करते हैं। नार क्षेत्र में आगे की पीढ़ियों में हुये वत्सराज, वामन व सूरसेन नामक गौड़ वि.स. 1206 में पुष्कर तीर्थ स्नान हेतु राजस्थान आये। उस समय दहिया राजपूत अजमेर में चैहानों के सामंत थे। जिन्होंने चैहानों से विद्रोह कर रखा था.। तत्कालीन चैहान शासक विग्रहराज तृतीय ने विद्रोह दबाने गौड़ों को भेजा। गौड़ों ने दहियाओं का विद्रोह दबा दिया तब प्रसन्न होकर चैहान शासक ने इनको केकड़ी, जूनियां, देवलिया और सरवाड़ के परगने जागीर में दिये। वत्सराज के अधिकार में केकड़ी, जूनियां, सरवाड़ व देवलिया के परगने रहे वहीं वामन के अधिकार में मोठड़ी, मारोठ परगना रहा। महान राजपूत सम्राट पृथ्वीराज चैहान के कई प्रसिद्ध गौड़ सामंत थे। जिनमें रण सिंह गौड़ तथा बुलंदशहर का राजा रणवीर सिंह गौड़ प्रमुख थे। पृथ्वीराज रासो में और भी कई गौड़ सामंतों का जिक्र आता है। चंदरबरदाई ने गौडों की प्रशंसा में लिखा है


‘‘बलहट बांका देवड़ा, करतब बांका गौड़

हाडा बांका गाढ़ में, रण बांका राठौड़।’’

वहीं कर्नल टॉड ने लिखा है कि गौड़ राजपूत अपने समय के सर्वश्रेष्ठ घुड़सवार थे। टॉड के अनुसार एक समय इस जाति का राजस्थान में अत्यंत सम्मान था, जो बाद में धीरे धीरे समाप्त हो गया। पृथ्वीराज चैहान की हार के बाद राजस्थान में गौडों की शक्ति भी क्षीण हो गयी। बाद में शाहजहाँ के समय में गोपालदास गौड़ के नेतृत्व में गौडों ने राजस्थान में फिर से एक ऊँचा मुकाम हासिल किया। शहजादा खुर्रम को मुग़ल सम्राट शाहजहाँ बनाने में गोपालदास गौड़ का विशेष योगदान था। गोपालदास गौड़ की कूटनीति तथा सही योजनाओं के कारण ही खुर्रम बादशाह जहाँगीर को अप्रिय होने के बाद भी हिंदुस्तान का सम्राट बन सका। शाहजहाँ ने भी गौड़ राजपूतों को मुगल दरबार में कछवाहों तथा राठौड़ों के समकक्ष जागीरें एवं मनसब दिये। शाहजहाँ के बाद गौड़ राजपूतों ने ओरंगजेब का साथ देना उचित ना समझा । धर्मात के युद्ध में शाहजहाँ की तरफ से जोधपुर नरेश जसवंत सिंह के नेतृत्व में गौड़ राजपूत ओरंगजेब के विरुद्ध लडे । जगभान गौड़ इसमें वीरगति को प्राप्त हुये ।

अजमेर क्षेत्र के गौड़ : वत्सराज के वंशजों में गोपालदास बूंदी चले गये, जहाँ बूंदी शासक हाडा भोज ने उसे लाखेरी की जागीर दी। गोपालदास खुर्रम के साथ दक्षिण को गया, जब खुर्रम ने थट्टा का घेरा डाला तब गोपालदास अपने 17 पुत्रों सहित युद्ध में लड़े और वीरगति को प्राप्त हुये। खुर्रम जब शाहजहाँ के नाम से बादशाह बना तब गोपालदास के पुत्र विट्ठलदास को तीन हजार जात और पन्द्रह सौ सवार का मंसब दिया। विट्ठलदास रणथंभोर व आगरा किले का दुर्गाध्यक्ष भी रहा व कंधार के युद्धों में भी भाग लिया। विट्ठलदास के एक पुत्र अर्जुन के पास अजमेर के निकट राजगढ़ जागीर में था। इसी अर्जुन के हाथों इतिहास प्रसिद्ध वीर अमरसिंह राठौड़ मारे गये थे। अर्जुन के एक भाई के पास सवाई माधोपुर के पास बौल परगना था।


मारोठ क्षेत्र के गौड़ : मारोठ व मोठड़ी के जागीरदार वामन के पौत्र मोटेराव कुचामन के व जालिम सिंह मारोठ के स्वामी बने। इस क्षेत्र में गौड़ों ने अपना प्रभाव बढाया व राज्य विस्तार किया। गौड़ों द्वारा शासित होने के कारण आज भी यह प्रदेश गौड़ाटी के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ के गौड़ों ने आमेर राज्य से भी युद्ध किया था। 16 वीं सदी की शुरुआत में रिड़मल गौड़ मारोठ के शासक हुये, जो क्षेत्र के गौड़ शासकों के पाटवी नेता थे। घाटवा के नजदीक कोलोलाव तालाब पर राव शेखा द्वारा कोलराज गौड़ की हत्या के बाद गौड़ों के निकट संबंधी राव शेखा से 12 लड़ाइयाँ हुई। बारहवीं लड़ाई पूरी गौड़ शक्ति एकत्र कर मारोठ के अनुभवी शासक रिड़मल के नेतृत्व में लड़ी गई और रिडमल को राव शेखा के पुत्र रायमल से संधि करनी पड़ी। ज्ञात हो शेखावाटी व शेखावत वंश के प्रवर्तक राव शेखा इसी युद्ध में, जो घाटवा युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है, विजय के उपरांत ज्यादा घायल होने के चलते वीरगति को प्राप्त हुये थे। इस संधि में रिड़मल ने अपनी पुत्री का विवाह राव शेखा के प्रपोत्र लूणकर्ण के साथ किया और कई गांव भी दिये।

शाहजहाँ के काल में गौड़ों का शाहजहाँ से अच्छा संबंध रहा और वे दिल्ली दरबार में प्रभावशाली रहे, लेकिन औरंगजेब के काल में मारोठ के गौड़ों की स्थिति दिल्ली दरबार में कमजोर रही। इसी कमजोर स्थिति का फायदा उठाते हुये रघुनाथ सिंह मेड़तिया ने गौड़ों से मारोठ छीन लिया और औरंगजेब ने भी मारोठ का परगना रघुनाथसिंह मेड़तिया के नाम कर उसे स्वीकृति दे दी। लेकिन फिर भी पहले से अपेक्षाकृत कमजोर हो चुके गौडों को हराना रघुनाथ सिंह मेड़तिया के लिए संभव ना था । रघुनाथ सिंह मेड़तिया ने इसके लिए अपने सम्बन्धियों कछवाहों का साथ लिया तब जाकर गौडों को पराजित किया जा सका। मारोठ क्षेत्र से ही कुछ गौड़ अलवर, झुंझुनू व अन्य जगह चले गये। मारोठ से गये इन गौड़ों को मारोठिया गौड़ों के नाम से भी जाना जाता है। राजस्थान के इस क्षेत्र में कभी शासक रहे इस वीर राजपूत वंश के स्थानीय इतिहास की काफी सामग्री उपलब्ध है जिस पर और गहन शोध की आवश्यक्ता है । अपने पड़ौसी शेखावत और राठौड़ राजपूतों से इनके वैवाहिक संबंध थे, जिसकी जानकारियां भी इतिहास में प्रचुर मात्रा में मिलती है।

खापें

गौड़ राजपूत वंश की कई उपशाखाएँ (खापें) है जैसे- अजमेरा गौड़, मारोठिया गौड़, बलभद्रोत गौड़, ब्रह्म गौड़, चमर गौड़, भट्ट गौड़, गौड़हर, वैद्य गौड़, सुकेत गौड़, पिपारिया गौड़, अभेराजोत, किशनावत, चतुर्भुजोत, पथुमनोत, विबलोत, भाकरसिंहोत, भातसिंहोत, मनहरद सोत, मुरारीदासोत, लवणावत, विनयरावोत, उटाहिर, उनाय, कथेरिया, केलवाणा, खगसेनी, जरैया, तूर, दूसेना, घोराणा, उदयदासोत, नागमली, अजीतमली, बोदाना, सिलहाला आदि खापें है जो उनके निकास स्थल व पूर्वजों के नाम से प्रचलित है।

उत्तर प्रदेश में गौड़ राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र से बाहरदेव व नाहरदेव दो गौड़ भाई कन्नौज सम्राट नागभट्ट द्वितीय के पास पहुंचे। जिनको नागभट्ट ने कालपी व नार (कानपुर) क्षेत्र जागीर में दिया। इन्हीं के ही वंशज आज उत्तर प्रदेश के कानपुर, एटा, इटावा, गोरखपुर बदायूं, मोरादाबाद तथा अलीगढ में निवास करते हैं।नार के राजा पृथ्वीदेव गौड़ का विवाह महाराज गोपीचंद राठौड़ की बहिन से हुआ था। जब पृथ्वीदेव एक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ तो गोपीचंद राठौड़ ने अपने भांजों को बुला कर उन्हें अमेठी (कानपूर) का शासक बना दिया। राजा कान्ह्देव के ये वंशज अमेठिया गौड़ कहलाये। ये अमेठी लखनऊ, सीतापुर जिलों में बसते हैं।बंगाल से ही एक शाखा मथुरा आयी। दिल्ली सम्राट अनंगपाल तंवर के सेनापति दो गौड़ सगे भाई सूर और घोट थे। इन्होंने वर्तमान बिलराम (मथुरा) को जीता। पवायन रियासत 1705 में राजा उदयसिंह गौड़ ने रूहिल्ला पठानों को पराजित कर रोहिलखंड उत्तरप्रदेश (महाभारतकालीन पंचाल प्रदेश) में सबसे बड़ी राजपूत रियासत पवायन (जिला शाहजहांपुर) की स्थापना की। जिसका शासन 1947 तक कायम रहा। यहाँ के शासक को राजा की उपाधि धारण करने का अधिकार रहा है। बुलंदशहर में बसने वाले गौडों के पूर्वज राजस्थान से आये दो भाई थे जिला बिजनोर में भी गौड़ राजपूत बसते हैं। यहाँ मुकुटसिंह शेखावत के नेतृत्व में सोमवती अमावस्य पर गंगा स्नान करने राजस्थान से आये 12 राजाओं ने जिनमें बलभद्रसिंह गौड़ और बुद्धसिंह गौड़ भी शामिल थे, हिन्दु साधुओं की रक्षा आततायी मुस्लिम नवाब फतह उल्ला खान का वध करके की। इसके बाद इन 12 राजाओं ने 84-84 गाँव आपस में बाँट लिए और वहीं पर ही शासन करने लगे।

कानपुर से गौड़ राजपूतों का एक खानदान इलाहाबाद आ गया जो ओरछा के बुंदेलों की सेवा में था। इनके एक सामंत बिहारीसिंह गौड़ ने ओरंगजेब से बगावत की और एक युद्ध में मारे गए। इलाहबाद के डॉक्टर नरेंद्रसिंह गौर उत्तर प्रदेश सरकार में शिक्षा एवं गन्ना मंत्री भी रहे।

मध्य प्रदेश में गौड़ राजपूत मध्यप्रदेश में शेओपुर (जिला जबलपुर) गौड़ राजपूतों का एक प्रमुख ठिकाना रहा है। 1301 में अल्लाउद्दीन खिलजी ने शेओपुर पर कब्जा किया जो तब तक हमीर देव चैहान के पास था। बाद में मालवा के सुलतान का तथा शेरशाह सूरी का भी यहाँ कब्जा रहा। उसके बाद बूंदी के शासक सुरजन सिंह हाडा ने भी शेओपुर पर कब्जा किया। बाद में अकबर ने इसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया। स्वतंत्र रूप से इस राज्य की स्थापना विट्ठलदास गौड़ के पुत्र अनिरुद्ध सिंह गौड़ ने की थी। इनके आमेर का कछवाहा राजपूतों से काफी निकट के और घनिष्ट सम्बन्ध रहे। अनिरुद्ध सिंह गौड़ की पुत्री का विवाह आमेर नरेश मिर्जा राजा रामसिंह से हुआ था। सवाई राजा जयसिंह का विवाह उदयसिंह गौड़ की पुत्री आनंदकंवर से हुआ था। जिससे ज्येष्ठ पुत्र शिवसिंह पैदा हुआ।

सन 1722 में जब जयपुर नरेश सवाई राजा जयसिंह जाटों का दमन करने थुड गए थे, उस समय तत्कालीन शेओपुर नरेश इन्दरसिंह गौड़ अपनी सेना सहित उनकी मदद में उपस्थित रहे। बाद में मैराथन के विरुद्ध भी इन्द्रसिंह गौड़ जय सिंह के साथ रहे। इसके अलावा भोपाल में पेशवाओं के विरुद्ध युद्ध और जोधपुर के विरुद्ध युद्ध में भी इन्दरसिंह गौड़ सवाई राजा की मदद में रहे। इस प्रकार इन्दरसिंह गौड़ ने पूरे जीवन सवाई राजा जयसिंह का साथ दिया। बाद में सिंधियों ने गौड़ों से शेओपुर को जीत लिया।

शेओपुर का 225 साल का इतिहास गवाही है, शानदार गौड़ राजपूत वास्तुकला की। नरसिंह गौड़ का महल हो, राणी महल हो या किशोरदास गौड़ की छतरियां हों, सब अपने आप में बेमिसाल हैं। आज ये शहर मध्यप्रदेश के पर्यटन का एक प्रमुख हिस्सा है।

खांडवा के गौड़ शेओपुर के अलावा खांडवा भी मध्यप्रदेश में गौडों का एक प्रमुख ठिकाना रहा है। अजमेर साम्राज्य के सामंत राजा वत्सराज (बच्छराज) गौड़ (केकड़ी-जूनियां) के वंशज गजसिंह गौड़ और उनके भाइयों ने राजस्थान से हटकर 1485 में पूर्व निमाड़ (खांडवा) में घाटाखेड़ी नमक राज्य स्थापित किया। यह गौड़ राजपूतों का एक मजबूत ठिकाना रहा। वर्तमान में खांडवा के मोहनपुर, गोरड़िया पोखर राजपुरा प्लासी आदि गाँवों में उपरोक्त ठिकाने के वंशज बसे हुये हैं। किंवदंती है एक गौड़ राजा के प्रताप और तप के कारण ही मध्यप्रदेश की नर्मदा नदी उलटी बहती है


 


पठानिया वंश


चन्द्रवंशी पठानिया राजपूतों का सम्पूर्ण इतिहास

मित्रों आज हम आपको पंजाब,जम्मू,हिमाचल प्रदेश के चंद्रवंशी पठानिया राजपूतो(Tanwar/tomar rajput Clan Pathania) के बारे में विस्तृत जानकारी देंगे.यह वंश ईस्वी 1849 तक विदेशी आक्रमणकारियों के विरुध अपने संघर्षों के लिए जाना जाता है आक्रमणकारी चाहे मुसलमान हो या अंग्रेज। इस वंश के राम सिंह पठानिया अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी वीरता के लिए विख्यात हैं.यह वंश इतना बहादुर व झुझारू है के आजादी के बाद भी पठानिया राजपूतों ने सेना में 3 महावीर चक्र प्राप्त किये…..

पठानिया वंश की उत्पत्ति


इस वंश की उत्पत्ति पर कई मत हैं,

श्री ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली के पृष्ठ संख्या 181-182 के अनुसार पठानिया राजपूत बनाफर वंश की शाखा है,उनके अनुसार बनाफर राजपूत पांडू पुत्र भीम की हिडिम्बा नामक नागवंशी कन्या से विवाह हुआ था हिडिम्बा से उत्पन्न पुत्र घटोत्कच के वंशज वनस्पर के वंशज बनाफर राजपूत हैं,पंजाब के पठानकोट में रहने वाले बनाफर राजपूत ही पठानिया राजपूत कहलाते है…..

किन्तु यह मत सही प्रतीत नहीं होता ,क्योंकि पठानिया राजपूतो के बनाफर राजपूत वंश से सम्बंधित होने का कोई प्रमाण नही मिलता है,


श्री रघुनाथ सिंह कालीपहाडी कृत क्षत्रिय राजवंश के पृष्ठ संख्या 270-271 व 373 के अनुसार पठानिया राजपूत तंवर वंश की शाखा है,

नूरपुर के तंवर वंशी राजा बासु (1580-1613) ने अपने पुरोहित व्यास के साथ महाराणा मेवाड़ अमर सिंह से मुलाकात की थी,इसी व्यास का वंशज सुखानंद सम्वत 1941 वि० को उदयपुर आया था,बासु के समय के ताम्र पत्र के आधार पर सुखानंद के रिकॉर्ड में लिखा था कि “दिल्ली का राज छूटने के बाद राजा दिलीप के पुत्र जैतमल ने नूरपुर को अपनी राजधानी बनाया.(वीर विनोदभाग-2 पृष्ठ संख्या 228)निष्कर्ष—सभी वंशावलियों के रिकार्ड्स से भी यह वंश तंवर वंश की शाखा ही प्रमाणित होता है,,पंजाब में पठानकोट में रहने के कारण तंवर वंश की यह शाखा पठानिया के नाम से प्रसिद्ध हुई.वस्तुत: पठानकोट का प्राचीन नाम भी संभवत: पैटनकोट हो सकता है.


———–पठानकोट एवं नूरपुर राज्य का इतिहास————

Dynasty–Tanwar rajput Clan(Pathania)


Area–180 km² (1572)

राज्य का नाम–नूरपुर(पुराना नाम धमेरी)

पठानिया राजपूत तंवर राजा अनंगपाल तंवर के अनुज राजा जैतपाल के वंशज है जिन्होंने उत्तर भारत में धमेरी नाम के राज्य की स्थापना की और पठानकोट नामक शहर बसाया। धमेरी राज्य का नाम बाद में जा कर नूरपुर पड़ा। सं० 1849 में नूरपुर अंग्रेजो के अधीन हो गया।

इस राज्य कि स्थापना 11 वी सदी में (1095 ईस्वी)में दिल्ली के राजा अनंगपाल तंवर द्वित्य के छोटे भाई जैतपाल द्वारा की गई थी,जिन्होंने खुद को पठानकोट में स्थापित किया,उन्होंने यहाँ गजनवी काल से स्थापित मुस्लिम गवर्नर कुजबक खान को पराजित कर उसे मार भगाया और पठानकोट किला और राज्य पर अधिकार जमाया,इसके बाद जैतपाल तंवर और उनके वंशज पठानिया राजपूत कहलाने लगे,उनके बाद क्रमश: खेत्रपाल,सुखीनपाल,जगतपाल,रामपाल,गोपाल,अर्जुनपाल,वर्शपाल,जतनपाल,विदुरथपाल,किरतपाल,काखोपाल पठानकोट के राजा हुए…..

उनके बाद की वंशावली निम्नवत है——

राजा जसपाल(1313-1353)—इनके नो पुत्र हुए जिनसे अलग अलग शाखाएँ चल.

राजा कैलाश पाल(1353-1397)

राजा नागपाल(1397-1438)

राजा पृथीपाल(1438-1473)

राजा भीलपाल(1473-1513)

राजा बख्त्मल(1513-1558) ये अकबर के विरुद्ध शेरशाह सूरी के पुत्र सिकन्दर सूर के विरुद्ध लडे और 1558 ईस्वी में इनकी मृत्यु हुई.

राजा पहाड़ी मल(1558-1580)

राजा बासु देव(1580/1613)———–

राजा बासु देव के समय उनसे पठानकोट का परगना छिन गया और राजधानी धमेरी स्थान्तरित हो गई,किन्तु बाद में राजा बासु ने अपनी स्थिति को मजबूत किया और अकबर के समय उन्हें 1500 का मंसब मिला जो जहाँगीर के समय बढ़कर 3500 हो गया.हालाँकि राजा बासु पर जहाँगीर को पूरा विश्वास नहीं था जिसका जिक्र तुजुक ए जहाँगीरी में मिलता है,राजा बासु ने नूरपुर धामेरी में बड़ा दुर्ग बनवाया जो आज भी स्थित है,शाहबाद के थाने में राजा बासु की ईस्वी 1613 में मृत्यु हो गई.

राजा सूरजमल(1613-1618)—राजा बासु ने अपने बड़े पुत्र जगत सिंह को राजा बनाया पर जहाँगीर ने उसके छोटे पुत्र सूरजमल को धमेरी का राजा बनाकर तीन हजार जात और दो हजार सवार का मनसबदार बना दिया,उनकी ईस्वी 1618 में चंबा में मृत्यु हो गई


मियां माधो सिंह को जहागीर ने राजा का ख़िताब दिया उनकी ईस्वी 1623 में मृत्यु हो गई.

राजा जगत सिंह (1618-1646)—शाहजहाँ के समय राजा जगत सिंह फिर से धामेरी के राजा बन गये.इन्हें पहले 300 का मनसब मिला बाद में बढ़कर 1000 आदमी और 500 घोड़े का हो गया,ईस्वी 1626 में यह बढ़कर 3000 आदमी और 2 हजार घोड़ो का हो गया,ईस्वी 1641 में यह बढ़कर 5 हजार का मनसब हो गया. ईस्वी 1622 में धमेरी का नाम मल्लिका नूरजहाँ के नाम पर बदलकर नूरपुर हो गया, नूरजहाँ यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य से बहुत प्रभावित थी.शाहजहाँ ने इन्हें बंगश का मुख्याधिकारी बना दिया,ईस्वी 1640 में जगत सिंह ने शाहजहाँ के खिलाफ विद्रोह किया,शाहजहाँ ने इनके विरुद्ध सेना भेजी,जिसके बाद कड़े संघर्ष के बाद उन्होंने ईस्वी 1642 में आत्मसमर्पण किया और जहाँगीर के दरबार में पेश हुए,उनका मनसब बहाल कर दिया गया.ईस्वी 1646 में पेशावर में उनकी मृत्यु हो गई.

राजा राजरूप सिंह(1646–1661)—राजा जगतसिंह के पुत्र राजरूप सिंह को शाहजहाँ ने कांगड़ा घाटी की फौजदारी दी थी.वे दो हजार जात और दो हजार सवार के मनसबदार थे,बाद में इसे बढ़कर 3500 कर दिया गया,ईस्वी 1661 में इन्हें गजनी का थानेदार भी बनाया गया.ईस्वी 1661 में इनकी मृत्यु हो गई.

राजा मान्धाता सिंह(1661–1700)

राजा दयाद्त्त सिंह (1700–1735)

राजा फ़तेह सिंह (1735–1770)

राजा पृथ्वीसिंह (1770–1805)

राजा वीरसिंह (1805–1846)—-नूरपुर के अंतिम शासक राजा,इनके समय में सिख महाराजा रणजीत सिंह ने इस राज्य पर हमला किया जिसका वीरसिंह ने वीरतापूर्वक प्रतिरोध किया किन्तु शत्रु की कई गुनी सेना होने के कारण सिखों ने इनका काफी क्षेत्र छीन लिया,इसके बाद इनके वंशजो पर काफी कम जागीर रह गई.ईस्वी 1846 में एक युद्ध में इनका निधन हो गया.

राजा जसवंत सिंह(1846–1898)—इनके समय में अंग्रेजो ने इस रियासत को अपने क्षेत्र में मिला लिया और विक्रम संवत 1914 में किले को तोड़ कर इसका आधा भाग जसवंत सिंह को दे दिया,अंग्रेजो ने इन्हें मुवाअजे के रूप में बड़ी सम्पत्ति दी.इन्ही के समय वीर वजीर राम सिंह पठानिया ने अंग्रेजो के विरुद्ध बगावत कर उनके दांत खट्टे कर दिए थे.


राजा गगन सिंह(1898–1952)—इनका जन्म ईस्वी 1882 में हुआ था,6th Viceregal Darbari in Kangra District, an honorary magistrate in Kangra District;

मार्च 1909 को वायसरॉय ने इन्हें राजा का खिताब दिया,सन 1952 ईस्वी में इनका निधन हो गया.

राजा देवेन्द्र सिंह(1952-1960)

इनके अतिरिक्त राजा भाऊ सिंह को सन 1650 में शाहपुर स्टेट मिली पर उन्होंने सन 1686 ईस्वी में इस्लाम धर्म गृहण कर लिया,उनके वंशज आज मुस्लिम पठानिया राजपूत हैं.

इस प्रकार हम देखते हैं कि पंजाब ,हिमाचल,जम्मू के पठानिया राजपूत चंद्रवंशी तंवर राजपूतो की ही शाखा हैं और इन्होने लम्बे समय तक पठानकोट,नूरपुर(धमेरी)आदि राज्यों पर राज किया है,यह वंश इतना बहादुर व झुझारू है के आजादी के बाद भी पठानिया राजपूतों ने 3 महावीर चक्र प्राप्त किये। आज पठानिया राजपूत उत्तर पंजाब व हिमाचल में फैले हुए है।सेना में आज भी बड़ी संख्या में पठानिया राजपूत मिलते हैं जिनमे बड़े बड़े आर्मी ऑफिसर भी शामिल हैं.


बैस राजपूत वंश


मित्रों आज हम आपको मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश के बहुत सशक्त राजपूत वंश बैस क्षत्रियों के बारे में जानकारी देंगे, कृपया शेयर जरूर करें।


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बैस राजपूतो के गोत्र,प्रवर,आदि—-

वंश-बैंस सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल है।हालाँकि कुछ विद्वान इन्हें नागवंशी भी बताते हैं।

गोत्र-भारद्वाज है

प्रवर-तीन है : भारद्वाज ; बार्हस्पत्य और अंगिरस

वेद-यजुर्वेद

कुलदेवी-कालिका माता

इष्ट देव-शिव जी

ध्वज-आसमानी और नाग चिन्ह

प्रसिद्ध बैस व्यक्तित्व—

शालिवाहन,हर्षवर्धन,त्रिलोकचंद,सुहेलदेव,अभयचंद,

राणा बेनीमाधवबख्श सिंह,मेजर ध्यानचंद आदि

शाखाएँ—

कोट बहार बैस,कठ बैस,डोडिया बैस,त्रिलोकचंदी(राव,राजा,नैथम,सैनवासी) बैस,प्रतिष्ठानपुरी बैस,रावत,कुम्भी,नरवरिया,भाले सुल्तान,चंदोसिया,आदि

प्राचीन एवं वर्तमान राज्य और ठिकाने—


प्रतिष्ठानपुरी,स्यालकोट,स्थानेश्वर, मुंगीपट्टम्म,कन्नौज,बैसवाडा, कस्मांदा, बसन्तपुर, खजूरगाँव थालराई ,कुर्रिसुदौली, देवगांव,मुरारमउ, गौंडा, थानगाँव,कटधर आदि


परम्पराएँ—

बैस राजपूत नागो को नहीं मारते हैं,नागपूजा का इनके लिए विशेष महत्व है,इनमे ज्येष्ठ भ्राता को टिकायत कहा जाता था,और सम्पत्ति का बड़ा हिस्सा आजादी से पहले तक उसे ही मिलता था। मुख्य गढ़ी में टिकायत परिवार ही रहता था और शेष भाई अलग किला/मकान बनाकर रहते थे। बैस राजपूतो में आपसी भाईचारा बहुत ज्यादा होता है। बिहार के सोनपुर का पशु मेला बैस राजपूतों ने ही प्रारम्भ किया था।


वर्तमान निवास—

यूपी के अवध में स्थित बैसवाडा, मैनपुरी, एटा, बदायूं, कानपूर,इलाहबाद,बनारस,आजमगढ़,बलिया,बाँदा, हमीरपुर,प्रतापगढ़,सीतापुर,रायबरेली,उन्नाव,लखनऊ,हरदोई,फतेहपुर,गोरखपुर,बस्ती,मिर्जापुर,गाजीपुर,गोंडा,बहराइच,बाराबंकी,बिहार,पंजाब,पाक अधिकृत कश्मीर,पाकिस्तान में बड़ी आबादी है और मध्य प्रदेश और राजस्थान के कुछ हिस्सों में भी थोड़ी आबादी है।

बैस क्षत्रियों कि उत्पत्ति—

बैस राजपूतों कि उतपत्ति के बारे में कई मत प्रचलित हैं—


1-ठाकुर ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली के पृष्ठ संख्या 112-114 के अनुसार सूर्यवंशी राजा वासु जो बसाति जनपद के राजा थे, उनके वंशज बैस राजपूत कहलाते हैं। बसाति जनपद का अस्तित्व महाभारत काल तक रहा है।

2-देवी सिंह मंडावा कृत राजपूत शाखाओं का इतिहास के पृष्ठ संख्या 67-74 के अनुसार वैशाली से निकास के कारण ही यह वंश वैस या बैस या वैश कहलाया,इनके अनुसार बैस सूर्यवंशी हैं। इनके किसी पूर्वज ने किसी नागवंशी राजा कि सहायता से उन्नति कि,इसीलिए बैस राजपूत नाग पूजा करते हैं और इनका चिन्ह भी नाग है।

3-महाकवि बाणभट ने सम्राट हर्षवर्धन जो कि बैस क्षत्रिय थे उनकी बहन राज्यश्री और कन्नौज के मौखरी(मखवान,झाला) वंशी महाराजा गृहवर्मा के विवाह को सूर्य और चन्द्र वंश का मिलन बताया है,मौखरी चंद्रवंशी थे अत: बैस सूर्यवंशी सिद्ध होते हैं।

4-महान इतिहासकार गौरिशंकर ओझा जी कृत राजपूताने का इतिहास के पृष्ठ संख्या 154-162 में भी बैस राजपूतों को सूर्यवंशी सिद्ध किया गया है।

5-श्री रघुनाथ सिंह कालीपहाड़ी कृत क्षत्रिय राजवंश के अनुसार भी बैस सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं।

6-डा देवीलाल पालीवाल कि कर्नल जेम्स टॉड कृत राजपूत जातियों का इतिहास के प्रष्ठ संख्या 182 के अनुसार भी बैस सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं।

7-ठाकुर बहादुर सिंह बीदासर कृत क्षत्रिय वंशावली एवं जाति भास्कर में बैस वंश को स्पष्ट सूर्यवंशी बताया गया है।

8-इनके झंडे में नाग का चिन्ह होने के कारण कई विद्वान इन्हें नागवंशी मानते हैं। लक्ष्मण को शेषनाग का अवतार भी माना जाता है,अत: कुछ विद्वान बैस राजपूतो को लक्ष्मण का वंशज और नागवंशी मानते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार भरत के पुत्र तक्ष से तक्षक नागवंश चला जिसने तक्षिला कि स्थापना की,बाद में तक्षक नाग के वंशज वैशाली आये और उन्ही से बैस राजपूत शाखा प्रारम्भ हुई।

9-कुछ विद्वानों के अनुसार बैस राजपूतों के आदि पुरुष शालिवाहन के पुत्र का नाम सुन्दरभान या वयस कुमार था जिससे यह वंश वैस या बैस कहलाया,जिन्होंने सहारनपुर कि स्थापना की।

10-कुछ विद्वानों के अनुसार गौतम राजा धीरपुंडीर ने 12 वी सदी के अंत में राजा अभयचन्द्र को 22 परगने दहेज़ में दिए इन बाईस परगनों के कारण यह वंश बाईसा या बैस कहलाने लगा।

11-कुछ विद्वान इन्हें गौतमी पुत्र शातकर्णी जिन्हें शालिवाहन भी कहा जाता है उनका वंशज मानते हैं, वहीं कुछ के अनुसार बैस शब्द का अर्थ है वो क्षत्रिय जिन्होंने बहुत सारी भूमि अपने अधिकार में ले ली हो।


—-बैस वंश कि उत्पत्ति के सभी मतों का विश्लेष्ण एवं निष्कर्ष—-


बैस राजपूत नाग कि पूजा करते हैं और इनके झंडे में नाग चिन्ह होने का यह अर्थ नहीं है कि बैस नागवंशी हैं। महाकवि बाणभट ने सम्राट हर्षवर्धन जो कि बैस क्षत्रिय थे उनकी बहन राज्यश्री और कन्नौज के मौखरी(मखवान,झाला) वंशी महाराजा गृहवर्मा के विवाह को सूर्य और चन्द्र वंश का मिलन बताया है,मौखरी चंद्रवंशी थे अत: बैस सूर्यवंशी सिद्ध होते हैं।

लक्ष्मण जी को शेषनाग का अवतार माना जाता है किन्तु लक्ष्मन जी नागवंशी नहीं रघुवंशी ही थे और उनके वंशज आज के प्रतिहार(परिहार) और मल्ल राजपूत है।जिन विद्वानों ने 12 वी सदी में धीरपुंडीर को अर्गल का गौतमवंशी राजा लिख दिया और उनके द्वारा दहेज में अभयचन्द्र को 22 परगने दहेज़ में देने से बैस नामकरण होने का अनुमान किया है वो बिलकुल गलत है,क्योंकि धीरपुंडीर गौतम वंशी नहीं पुंडीर क्षत्रिय थे जो उस समय हरिद्वार के राजा थे,बाणभट और चीनी यात्री ह्वेंस्वांग ने सातवी सदी में सम्राट हर्ष को स्पष्ट रूप से बैस या वैश वंशी कहा है तो 12 वी सदी में बैस वंशनाम कि उतपत्ति का सवाल ही नहीं है,किन्तु यहाँ एक प्रश्न उठता है कि अगर बैस वंश कि मान्यताओं के अनुसार शालिवाहन के वंशज वयस कुमार या सुंदरभान सहारनपुर आये थे तो उनके वंशज कहाँ गए?


बैस वंश कि एक शाखा त्रिलोकचंदी है और सहारनपुर के वैश्य जैन समुदाय कि भी एक शाखा त्रिलोकचंदी है इन्ही जैनियो के एक व्यक्ति राजा साहरनवीर सिंह ने अकबर के समय सहारनपुर नगर बसाया था,आज के सहारनपुर,हरिद्वार का क्षेत्र उस समय हरिद्वार के पुंडीर शासको के नियन्त्रण में था तो हो सकता है शालिवाहन के जो वंशज इस क्षेत्र में आये होंगे उन्हें राजा धीर पुंडीर ने दहेज़ में सहारनपुर के कुछ परगने दिए हों और बाद में ये त्रिलोकचंदी बैस राजपूत ही जैन धर्म ग्रहण करके व्यापारी हो जाने के कारण वैश्य बन गए हों और इन्ही त्रिलोकचंदी जैनियों के वंशज राजा साहरनवीर ने अकबर के समय सहारनपुर नगर कि स्थापना कि हो, और बाद में इन सभी मान्यताओं में घालमेल हो गया हो। अर्गल के गौतम राजा अलग थे उन्होंने वर्तमान बैसवारे का इलाका हर्षवर्धन के वंशज बैस वंशी राजा अभयचन्द्र को दहेज़ में दिया था।


गौतमी पुत्र शातकर्णी को कुछ विद्वान बैस वंशावली के शालिवाहन से जोड़ते हैं किन्तु नासिक शिलालेख में गौतमी पुत्र श्री शातकर्णी को एक ब्राह्मण (अद्वितिय ब्राह्मण) तथा खतिय-दप-मान-मदन अर्थात क्षत्रियों का मान मर्दन करने वाला आदि उपाधियों से सुशेभित किया है। इसी शिलालेख के लेखक ने गौतमीपुत्र की तुलना परशुराम से की है। साथ ही दात्रीशतपुतलिका में भी शालीवाहनों को मिश्रित ब्राह्मण जाति तथा नागजाति से उत्पन्न माना गया है।अत:गौतमीपुत्र शातकर्णी अथवा शालिवाहन को बैस वंशी शालिवाहन से जोड़ना उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि बैसवंशी सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं।


उपरोक्त सभी मतो का अधयन्न करने पर हमारा निष्कर्ष है कि बैस राजपूत सूर्यवंशी हैं। प्राचीन काल में सूर्यवंशी इक्ष्वाकु वंशी राजा विशाल ने वैशाली राज्य कि स्थापना कि थी,विशाल का एक पुत्र लिच्छवी था यहीं से सुर्यवंश कि लिच्छवी, शाक्य(गौतम), मोरिय(मौर्य), कुशवाहा(कछवाहा) ,बैस शाखाएँ अलग हुई।


जब मगध के राजा ने वैशाली पर अधिकार कर लिया और मगध में शूद्र नन्दवंश का शासन स्थापित हो गया और उसने क्षत्रियों पर जुल्म करने शुरू कर दिए तो वैशाली से सूर्यवंशी क्षत्रिय पंजाब,तक्षिला,महाराष्ट्र,स्थानेश्वर,दिल्ली आदि में आ बसे। दिल्ली क्षेत्र पर भी कुछ समय बैस वंशियों ने शासन किया और एक शाखा पंजाब में भी आ बसी। इन्होंने पंजाब में एक नगर श्री कंठ पर अधिकार किया, जिसका नाम आगे चलकर थानेश्वर हुआ।दिल्ली क्षेत्र थानेश्वर के नजदीक है अत:दिल्ली शाखा,थानेश्वर शाखा,सहारनपुर शाखा का आपस में जरुर सम्बन्ध होगा।

बैसवंशी सम्राट हर्षवर्धन अपनी राजधानी थानेश्वर से हटाकर कन्नौज ले गए। हर्षवर्धन ने अपने राज्य का विस्तार बंगाल,असम,पंजाब,राजपूताने,मालवा,नेपाल तक किया और स्वयं राजपुत्र शिलादित्य कि उपाधि धारण की।


हर्षवर्द्धन के पश्चात् इस वंश का शासन समाप्त हो गया और इनके वंशज कन्नौज से आगे बढकर अवध क्षेत्र में फ़ैल गए। इन्ही में आगे चलकर त्रिलोकचंद नाम के प्रसिद्ध व्यक्ति हुए इनसे बैस वंश कि कई शाखाएँ चली। इनके बड़े पुत्र बिडारदेव के वंशज भालेसुल्तान वंश के बैस हुए जिन्होंने सुल्तानपुर कि स्थापना की। इन्ही बिडारदेव के वंशज राजा सुहेलदेव हुए जिन्होंने महमूद गजनवी के भतीजे सैय्यद सलार मसूद गाजी को बहराइच के युद्ध में उसकी सेना सहित मौत के घाट उतार दिया था और खुद भी शहीद हो गए थे।


चंदावर के युद्ध में हर्षवर्धन के वंशज केशवदेव भी जयचंद के साथ युद्ध लड़ते हुए शहीद हो गए, बाद में उनके वंशज अभयचंद ने अर्गल के गौतम राजा कि पत्नी को तुर्कों से बचाया जिसके कारण गौतम राजा ने अभयचंद से अपनी पुत्री का विवाह कर उसे 1440 गाँव दहेज़ में दे दिए जिसमें विद्रोही भर जाति का दमन कर अभयचंद ने बैस राज्य कि नीव रखी जिसे आज बैसवाड़ा या बैसवारा कहा जाता है। इस प्रकार सूर्यवंशी बैस राजपूत आर्यावृत के एक बड़े भू भाग में फ़ैल गए।


—-बैसवंशी राजपूतों का सम्राट हर्षवर्धन से पूर्व का इतिहास


बैस राजपूत मानते हैं कि उनका राज्य पहले मुर्गीपाटन पर था और जब इस पर शत्रु ने अधिकार कर लिया तो ये प्रतिष्ठानपुर आ गए,वहां इस वंश में राजा शालिवाहन हुए,जिन्होंने विक्रमादित्य को हराया और शक सम्वत इन्होने ही चलाया,कुछ ने गौतमी पुत्र शातकर्णी को शालिवाहन मानकर उन्हें बैस वंशावली का शालिवाहन बताया है,और पैठण को प्रतिष्ठानपुर बताया और कुछ ने स्यालकोट को प्रतिष्ठानपुर बताया है, किन्तु यह मत सही प्रतीत नहीं होते। कई वंशो बाद के इतिहास में यह गलतियाँ कि गई कि उसी नाम के किसी प्रसिद्ध व्यक्ति को यह सम्मान देने लग गए,शालिवाहन नाम के इतिहास में कई अलग अलग वंशो में प्रसिद्ध व्यक्ति हुए हैं। भाटी वंश में भी शालिवाहन हुए हैं और सातवाहन वंशी गौतमीपुत्र शातकर्णी को भी शालिवाहन कहा जाता था।

विक्रमादित्य के विक्रम सम्वत और शालिवाहन के शक सम्वत में पूरे 135 वर्ष का फासला है अत:ये दोनों समकालीन नहीं हो सकते। दक्षिण के गौतमीपुत्र शातकर्णी को नासिक शिलालेख में स्पष्ट:ब्राह्मण लिखा है अत:इसका सूर्यवंशी बैस वंश से सम्बन्ध होना संभव नहीं है।

वस्तुत: बैस इतिहास का प्रतिष्ठानपुर न तो दक्षिण का पैठण है और न ही पंजाब का स्यालकोट है यह प्रतिष्ठानपुर इलाहबाद(प्रयाग) के निकट और झूंसी के पास था।

किन्तु इतना अवश्य है कि बैस वंश में शालिवाहन नाम के एक प्रसिद्ध राजा अवश्य हुए जिन्होंने प्रतिष्ठानपूरी में एक बड़ा बैस राज्य स्थापित किया। शालिवाहन कई राज्यों को जीतकर उनकी कन्याओं को अपने महल में ले आये,जिससे उनकी पहली तीन क्षत्राणी रानियाँ खिन्न होकर अपने पिता के घर चली गयी। इन तीन रानियों के वंशज बाद में भी बैस कहलाते रहे और बाद कि रानियों के वंशज कठबैस कहलाये, ये प्रतिष्ठानपुर(प्रयाग)के शासक थे।इन्ही शालिवाहन के वंशज त्रिलोकचंद बैस ने दिल्ली(उस समय कुछ और नाम होगा) पर अधिकार कर लिया। स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुसार दिल्ली पर सन 404 ईस्वी में राजा मुलखचंद उर्फ़ त्रिलोकचंद प्रथम ने विक्रमपाल को हराकर शासन स्थापित किया। इसके बाद विक्र्मचन्द, कर्तिकचंद, रामचंद्र, अधरचन्द्र, कल्याणचन्द्र, भीमचंद्र, बोधचन्द्र, गोविन्दचन्द्र और प्रेमो देवी ने दो सो से अधिक वर्ष तक शासन किया। वस्तुत ये दिल्ली के बैस शासक स्वतंत्र न होकर गुप्त वंश और बाद में हर्षवर्धन बैस के सामंत के रूप में यहाँ पर होंगे। इसके बाद यह वंश दिल्ली से समाप्त हो गया,और सातवी सदी के बाद में पांडववंशी अर्जुनायन तंवर क्षत्रियों(अनंगपाल प्रथम) ने प्राचीन इन्द्रप्रस्थ के स्थान पर दिल्ली कि स्थापना की।


वस्तुत:बैसवारा ही बैस राज्य था।(देवी सिंह मंडावा कृत राजपूत शाखाओं का इतिहास पृष्ठ संख्या 70,एवं ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली पृष्ठ संख्या 113,114)


—बैस वंश कि शाखाएँ—


कोट बाहर बैस—शालिवाहन कि जो रानियाँ अपने पीहर चली गयी उनकी संतान कोट बाहर बैस कहलाती है।

कठ बैस—शालिवाहन कि जो जीती हुई रानियाँ बाद में महल में आई उनकी संतान कोट बैस या कठ बैस कहलाती हैं।

डोडिया बैस—डोडिया खेडा में रहने के कारण राज्य हल्दौर जिला बिजनौर।

त्रिलोकचंदी बैस—त्रिलोकचंद के वंशज इनकी चार उपशाखाएँ हैं राव,राजा,नैथम,सैनवासी।

प्रतिष्ठानपुरी बैस—प्रतिष्ठानपुर में रहने के कारण।

चंदोसिया—ठाकुर उदय बुधसिंह बैस्वाड़े से सुल्तानपुर के चंदोर में बसे थे उनकी संतान चंदोसिया बैस कहलाती है।


रावत–फतेहपुर,उन्नाव में

भाले सुल्तान–ये भाले से लड़ने में माहिर थे। ये राजपूत रायबरेली,लखनऊ,उन्नाव में मिलते हैँ।

कुम्भी एवं नरवरिया–बैसवारा में मिलते हैं।


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–बैसवंशी राजपूतो कि वर्तमान स्थिति—


बैस राजपूत वंश वर्तमान में भी बहुत ससक्त वंश माना जाता है। ब्रिटिश गजेटियर में भी इस वंश कि सम्पन्नता और कुलीनता के बारे में विस्तार से लिखा गया है। अवध,पूर्वी उत्तरप्रदेश के बैसवारा में बहुत से बड़े जमीदार बैस वंश से थे। बैस वंशी राणा बेनीमाधव सिंह, रामबक्श सिंह और दुसरे बैस जमीदारों ने सन 1857 इसवी में अवध क्षेत्र में अंग्रेजो से जमकर लोहा लिया था। विद्रोही सिपाहियो में सबसे बड़ी संख्या अवध के बैसवाड़े की ही थी। बैस राजपूतों द्वारा अंग्रेजो का जोरदार विरोध करने के बावजूद अंग्रेजो कि हिम्मत इनकी जमिदारियां खत्म करने कि नहीं हुई। बैस राजपूत अपने इलाको के सरताज माने जाते हैं और सबसे महंगे सलीकेदार वस्त्र धारण करने से इनकी अलग ही पहचान हो जाती थी। अंग्रेजी ज़माने से ही इनके पक्के ऊँचे आवास इनकी अलग पहचान कराते थे,इनके बारे में अंग्रेजो ने लिखा है कि-


“The Bais Rajput became so rich at a time it is recorded that each Bais Rajput held Lakhs (Hundreds of thousands) of rupees a piece which could buy them nearly anything. To hold this amount of money you would have to have been extremely rich.

This wealth caused the Bais Rajput to become the “best dressed and housed people”[22] in the areas they resided. This had an influence on the areas of Baiswara and beyond as recorded the whole area between Baiswara and Fyzabad was”


जमीदारी के अतिरिक्त बैस राजपूत राजनीती और व्यापार के क्षेत्र में भी कीर्तिमान बना रहे हैं। कई बड़े व्यापारी और राजनेता भारत और पाकिस्तान में बैस बंश से हैं जो विदेशो में भी व्यापार कर रहे हैं। कश्मीर,कनाडा,यूरोप में बसा हुआ बैस राजपूत वंश आज भी पूरे परिश्रम,योग्यता से अपनी सम्पन्नता और प्रभुत्व समाज में कायम किये हुए है और अपने पूर्वजो कि गौरवशाली परम्परा का पालन कर रहा है।।


 


भदौरिया वंश


आज हम आपको भदौरिया राजपूत कुल के बारे में कुछ जानकारी देंगे,

भदौरिया राजपूत चौहान राजपूतो की शाखा है,इनका गोत्र वत्स है और इनकी चार शाखाए राउत, मेनू, तसेला, कुल्हिया, अठभईया हैं,


भदौरिया राजपूत कुल का नाम है। इनका नाम ग्वालियर के ग्राम भदावर पर पड़ा। इस वंश के महाराजा को ‘महेन्द्र’ (पृथ्वी का स्वामी) की उपाधि से संबोधित किया जाता है। यह उपाधि आज भी इस कुल के मुखिया के नाम रहती है |

इस कुटुम्ब के संस्थापक मानिक राय, अजमेर के चौहान को मना जाता है, उनके पुत्र राजा चंद्रपाल देव (७९४-८१६) ने ७९३ में “चंद्रवार” (आज का फिरोजाबाद) रियासत की स्थापना की और वहां एक किले का निर्माण कराया जो आज भी फिरोजाबाद में स्थित है।

८१६ में उनके पुत्र राजा भदों राव (८१६-८४२) ने भदौरा नामक शहर की स्थापना की और अपने राज्य की सीमा को आगरा में बाह तक बढ़ा दिया,

रज्जू भदौरिया ने सदा अकबर का प्रतिरोध किया,जौनपुर के शर्की सुल्तान हुसैनशाह को भी भदौरिया राजपूतो ने हराया था,

इन्होने दिल्ली के सुल्तान सिकन्दर लोदी के विरुद्ध भी बगावत की थी,


जब मुगलों के साम्राज्य का पतन हो रहा था, तब भदौरिया प्रभावशाली व सर्वशक्तिमान थे | १७०७ में सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के बाद हुयी लडाई में भदावर के राजा कल्याण सिंह भदौरिया ने पर धौलपुर कब्जा किया और १७६१ तक धौलपुर भदावर रियासत का हिस्सा रहा | १७०८ में भदावर सैनिक, उम्र-ऐ-उज्ज़म महाराजाधिराज श्रीमान महाराजा महेंद्र गोपाल सिंह भदौरिया ने गोंध पर धावा बोला, राणा भीम सिंह जाट को युद्ध में हरा कर गोंध के किले पर कब्जा किया और गोंध को भदावर में मिला लिया १७३८ तक गोंध भदावर की हिस्सा रहा ,

पहले इनके चार राज्य थे ,चाँदवार, भदावर, गोंध, धौलपुर,

इनमे गोंध इन्होने जाट राजाओ से जीता था,अब सिर्फ एक राज्य बचा है भदावर जो इनकी प्रमुख गद्दी है,राजा महेंद्र अरिदमन सिंह इस रियासत के राजा हैं और यूपी सरकार में मंत्री हैं.ये रियासत आगरा चम्बल इलाके में स्थित है,

अब भदौरिया राजपूत आगरा ,इटावा,भिंड,ग्वालियर में रहते हैं

चन्द्रवंशी तंवर(तोमर)राजपूत


 


चन्द्रवंशी तंवर(तोमर)राजपूतो का इतिहास


तोमर या तंवर उत्तर-पश्चिम भारत का एक राजपूत वंश है। तोमर राजपूत क्षत्रियो में चन्द्रवंश की एक शाखा है और इन्हें पाण्डु पुत्र अर्जुन का वंशज माना जाता है.इनका गोत्र अत्री एवं व्याघ्रपद अथवा गार्गेय्य होता है। क्षत्रिय वंश भास्कर,पृथ्वीराज रासो,बीकानेर वंशावली में भी यह वंश चन्द्रवंशी लिखा हुआ है,यही नहीं कर्नल जेम्स टॉड जैसे विदेशी इतिहासकार भी तंवर वंश को पांडव वंश ही मानते हैं.

उत्तर मध्य काल में ये वंश बहुत ताकतवर वंश था और उत्तर पश्चिमी भारत के बड़े हिस्से पर इनका शाशन था। देहली जिसका प्राचीन नाम ढिल्लिका था, इस वंश की राजधानी थी और उसकी स्थापना का श्रेय इसी वंश को जाता है।


नामकरण———

तंवर अथवा तोमर वंश के नामकरण की कई मान्यताएं प्रचलित हैं,कुछ विद्वानों का मानना है कि राजा तुंगपाल के नाम पर तंवर वंश का नाम पड़ा,पर सर्वाधिक उपयुक्त मान्यता ये प्रतीत होती है


इतिहासकार ईश्वर सिंह मडाड की राजपूत वंशावली के पृष्ठ संख्या 228 के अनुसार,,,,,,,

“पांडव वंशी अर्जुन ने नागवंशी क्षत्रियो को अपना दुश्मन बना लिया था,नागवंशी क्षत्रियो ने पांड्वो को मारने का प्रण ले लिया था,पर पांडवो के राजवैध धन्वन्तरी के होते हुए वे पांड्वो का कुछ न बिगाड़ पाए !अतः उन्होंने धन्वन्तरी को मार डाला !इसके बाद अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मार डाला !परीक्षित के बाद उसका पुत्र जन्मेजय राजा बना !अपने पिता का बदला लेने के लिए जन्मेजय ने नागवंश के नो कुल समाप्त कर दिए !नागवंश को समाप्त होता देख उनके गुरु आस्तिक जो की जत्कारू के पुत्र थे,जन्मेजय के दरबार मैं गए व् सुझाव दिया की किसी वंश को समूल नष्ट नहीं किया जाना चाहिए व सुझाव दिया की इस हेतु आप यज्ञ करे !महाराज जन्मेजय के पुरोहित कवष के पुत्र तुर इस यज्ञ के अध्यक्ष बने !इस यग्य में जन्मेजय के पुत्र,पोत्र अदि दीक्षित हुए !क्योकि इन सभी को तुर ने दीक्षित किया था इस कारण ये पांडव तुर,तोंर या बाद तांवर तंवर या तोमर कहलाने लगे !ऋषि तुर द्वारा इस यज्ञ का वर्णन पुराणों में भी मिलता है.


महाभारत काल के बाद तंवर वंश का वर्णन———-


महाभारत काल के बाद पांडव वंश का वर्णन पहले तो 1000 ईसा पूर्व के ग्रंथो में आता है जब हस्तिनापुर राज्य को युधिष्ठर वंश बताया गया,पर इसके बाद से लेकर बौद्धकाल,मौर्य युग से लेकर गुप्तकाल तक इस वंश के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती,समुद्रगुप्त के शिलालेख से पाता चलता है कि उन्होंने मध्य और पश्चिम भारत की यौधेय और अर्जुनायन क्षत्रियों को अपने अधीन किया था,यौधेय वंश युधिष्ठर का वंश माना जा सकता है और इसके वंशज आज भी चन्द्रवंशी जोहिया राजपूत कहलाते हैं जो अब अधिकतर मुसलमान हो गए हैं,इन्ही के आसपास रहने वाले अर्जुनायन को अर्जुन का वंशज माना जा सकता है और ये उसी क्षेत्रो में पाए जाते थे जहाँ आज भी तंवरावाटी और तंवरघार है,यानि पांडव वंश ही उस समय तक अर्जुनायन के नाम से जाना जाता था और कुछ समय बाद वही वंश अपने पुरोहित ऋषि तुर द्वारा यज्ञ में दीक्षित होने पर तुंवर, तंवर,तूर,या तोमर के नाम से जाना गया.(इतिहासकार महेन्द्र सिंह तंवर खेतासर भी अर्जुनायन को ही तंवर वंश मानते हैं)


तंवर वंश और दिल्ली की स्थापना ————


ईश्वर का चमत्कार देखिये कि हजारो साल बाद पांडव वंश को पुन इन्द्रप्रस्थ को बसाने का मौका मिला,और ये श्रेय मिला अनंगपाल तोमर प्रथम को.

दिल्ली के तोमर शासको के अधीन दिल्ली के अलावा पंजाब ,हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी था,इनके छोटे राज्य पिहोवा,सूरजकुंड,हांसी,थानेश्वर में होने के भी अभिलेखों में उल्लेख मिलते हैं.इस वंश ने बड़ी वीरता के साथ तुर्कों का सामना किया और कई सदी तक उन्हें अपने क्षेत्र में अतिक्रमण करने नहीं दिया


दिल्ली के तंवर(तोमर) शासक (736-1193 ई)——


1.अनगपाल तोमर प्रथम (736-754 ई)-दिल्ली के संस्थापक राजा थे जिनके अनेक नाम मिलते हैं जैसे बीलनदेव, जाऊल इत्यादि।

2.राजा वासुदेव (754-773)

3.राजा गंगदेव (773-794)

4.राजा पृथ्वीमल (794-814)-बंगाल के राजा धर्म पाल के साथ युद्ध

5.जयदेव (814-834)

6.राजा नरपाल (834-849)

7.राजा उदयपाल (849-875)

8.राजा आपृच्छदेव (875-897)

9.राजा पीपलराजदेव (897-919)

10.राज रघुपाल (919-940)

11.राजा तिल्हणपाल (940-961)

12.राजा गोपाल देव (961-979)-इनके समय साम्भर के राजा सिहराज और लवणखेडा के तोमर सामंत सलवण के मध्य युद्ध हुआ जिसमें सलवण मारा गया तथा उसके पश्चात दिल्ली के राजा गोपाल देव ने सिंहराज पर आक्रमण करके उन्हें युद्ध में मारा

12.सुलक्षणपाल तोमर (979-1005)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया

13.जयपालदेव (1005-1021)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया, महमूद ने थानेश्वसर ओर मथुरा को लूटा

14.कुमारपाल (1021-1051)-मसूद के साथ युद्ध किया और 1038 में हाँसी के गढ का पतन हुआ, पाच वर्ष बाद कुमारपाल ने हासी, थानेश्वसर के साथ साथ कांगडा भी जीत लिया


16.अनगपाल द्वितीय (1051-1081)-लालकोट का निर्माण करवाया और लोह स्तंभ की स्थापना की, अनंगपाल द्वितीय ने 27 महल और मन्दिर बनवाये थे।दिल्ली सम्राट अनगपाल द्वितीय ने तुर्क इबराहीम को पराजित किया


17.तेजपाल प्रथम(1081-1105)

18.महिपाल(1105-1130)-महिलापुर बसाया और शिव मंदिर का निर्माण करवाया

19.विजयपाल (1130-1151)-मथुरा में केशवदेव का मंदिर


20.मदनपाल(1151-1167)-

मदनपाल अथवा अनंगपाल तृतीय के समय अजमेर के प्रतापी शासक विग्रहराज चौहान उर्फ़ बीसलदेव ने दिल्ली राज्य पर अपना अधिकार कर लिया और संधि के कारण मदनपाल को ही दिल्ली का शासक बना रहने दिया,मदनपाल ने बीसलदेव के साथ मिलकर तुर्कों के हमलो के विरुद्ध युद्ध किया और उन्हें मार भगाया,मदलपाल तोमर ने विग्रहराज चौहान उर्फ़ बीसलदेव के शोर्य से प्रभावित होकर उससे अपनी पुत्री देसलदेवी का विवाह किया,पृथ्वीराज रासो में बाद में किसी ने काल्पनिक कहानी जोड़ दी है कि दिल्ली के राजा अनंगपाल ने अपनी दो पुत्रियों की शादी एक कन्नौज के जयचंद के साथ और दूसरी कमला देवी का विवाह पृथ्वीराज चौहान के साथ की,जिससे पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ,जबकि सबसे प्रमाणिक ग्रन्थ पृथ्वीराज विजय के अनुसार सच्चाई ये है कि पृथ्वीराज चौहान की माता चेदी राज्य की कर्पूरी देवी थी,और पृथ्वीराज चौहान न तो अनंगपाल तोमर का धेवता था न ही जयचंद उसका मौसा था,ये सारी कहानी काल्पनिक थी.


21.पृथ्वीराज तोमर(1167-1189)-अजमेर के राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज चव्हाण इनके समकालीन थे

22.चाहाडपाल/गोविंदराज (1189-1192)-पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारा गया।पृथ्वीराज रासो के अनुसार

तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था,जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं।


23.तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई)-दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा , जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया, और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।

ग्वालियर,चम्बल,ऐसाह गढ़ी का तोमर वंश——–


दिल्ली छूटने के बाद वीर सिंह तंवर ने चम्बल घाटी के ऐसाह गढ़ी में अपना राज स्थापित किया जो इससे पहले भी अर्जुनायन तंवर वंश के समय से उनके अधिकार में था,बाद में इस वंश ने ग्वालियर पर भी अधिकार कर मध्य भारत में एक बड़े राज्य की स्थापना की,यह शाखा ग्वालियर स्थापना के कारण ग्वेलेरा कहलाती है,माना जाता है कि ग्वालियर का विश्वप्रसिद्ध किला भी तोमर शासको ने बनवाया था.यह क्षेत्र आज भी तंवरघार कहा जाता है और इस क्षेत्र में तोमर राजपूतो के 1400 गाँव कहे जाते हैं.

वीर सिंह के बाद उद्दरण,वीरम,गणपति,डूंगर सिंह,कीर्तिसिंह,कल्याणमल,और राजा मानसिंह हुए,

राजा मानसिंह तोमर बड़े प्रतापी शासक हुए,उनके दिल्ली के सुल्तानों से निरंतर युद्ध हुए,उनकी नो रानियाँ राजपूत थी,पर एक दीनहींन गुज्जर जाति की लडकी मृगनयनी पर मुग्ध होकर उससे भी विवाह कर लिया,जिसे नीची जाति की मानकर रानियों ने महल में स्थान देने से मना कर दिया जिसके कारण मानसिंह ने छोटी जाति की होते हुए भी मृगनयनी गूजरी के लिए अलग से ग्वालियर में गूजरी महल बनवाया.इस गूजरी रानी पर राजपूत राजा मानसिंह इतने आसक्त थे कि गूजरी महल तक जाने के लिए उन्होंने एक सुरंग भी बनवाई थी,जो अभी भी मौजूद है पर इसे अब बंद कर दिया गया है.

मानसिंह के बाद विक्रमादित्य राजा हुए,उन्होंने पानीपत की लड़ाई में अपना बलिदान दिया,उनके बाद रामशाह तोमर राजा हुए,उनका राज्य 1567 ईस्वी में अकबर ने जीत लिया,इसके बाद राजा रामशाह तोमर ने मुगलों से कोई संधि नहीं की और अपने परिवार के साथ महाराणा उदयसिंह मेवाड़ के पास आ गए,हल्दीघाटी के युद्ध में राजा रामशाह तोमर ने अपने पुत्र शालिवाहन तोमर के साथ वीरता का असाधारण प्रदर्शन कर अपने परिवारजनों समेत महान बलिदान दिया,उनके बलिदान को आज भी मेवाड़ राजपरिवार द्वारा आदरपूर्वक याद किया जाता है.


मालवा में रायसेन में भी तंवर राजपूतो का शासन था ,यहाँ के शासक सिलहदी उर्फ़ शिलादित्य तंवर राणा सांगा के दामाद थे और खानवा के युद्ध में राणा सांगा की और से लडे थे,कुछ इतिहासकार इन पर राणा सांगा से धोखे का भी आरोप लगाते हैं ,पर इसके प्रमाण पुष्ट नही हैं,सिल्ह्दी पर गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने 1532 इसवी में हमला किया,इस हमले में सिलहदी तंवर की पत्नी जो राणा सांगा की पुत्री थी उन्होंने 700 राजपूतानियो और अपने दो छोटे बच्चों के साथ जौहर किया और सिल्हदी तंवर अपने भाई के साथ वीरगति को प्राप्त हुए,

बाद में रायसेन को पूरनमल को दे दिया गया,कुछ वर्षो बाद 1543 इसवी में रायसेन के मुल्लाओ की शिकायत पर शेरशाह सूरी ने इसके राज्य पर हमला किया और पूरणमल की रानियों ने जौहर कर लिया और पूरणमल मारे गये इस प्रकार इस राज्य की समाप्ति हुई.


तंवरावाटी और तंवर ठिकाने —————

देहली में तोमरो के पतन के बाद तोमर राजपूत विभिन्न दिशाओ में फ़ैल गए। एक शाखा ने उत्तरी राजस्थान के पाटन में जाकर अपना राज स्थापित किया जो की जयपुर राज्य का एक भाग था। ये अब ‘तँवरवाटी'(तोरावाटी) कहलाता है और वहाँ तँवरों के ठिकाने हैं। मुख्य ठिकाना पाटण का ही है,एक ठिकाना खेतासर भी है,इनके अलावा पोखरण में भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं,बाबा रामदेव तंवर वंश से ही थे जो बहुत बड़े संत माने जाते हैं,आज भी वो पीर के रूप में पूजे जाते हैं.


मेवाड़ के सलुम्बर में भी तंवर राजपूतो के कई ठिकाने हैं जिनमे बोरज तंवरान एक ठिकाना है,

इसके अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश में बेजा ठिकाना और कोटि जेलदारी,बीकानेर में दाउदसर ठिकाना,mandholi जागीर,भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं,धौलपुर की स्थापना भी तंवर राजपूत धोलनदेव ने की थी। 18 वी सदी के आसपास अंग्रेजो ने जाटों को धौलपुर दे दिया। ये जाट गोहद से सिंधिया द्वारा विस्थापित किये गए थे और पूर्व में इनके पूर्वज राजा मानसिंह तोमर की सेवा में थे और उनके द्वारा ही इन्हें गोहद में बसाया गया था।अब भी धौलपुर में कायस्थपाड़ा तंवर राजपूतो का ठिकाना है।


तंवरवंश की शाखाएँ——

तंवर वंश की प्रमुख शाखाएँ रुनेचा,ग्वेलेरा,बेरुआर,बिल्दारिया,खाति,इन्दोरिया,जाटू,जंघहारा,सोमवाल हैं,इसके अतिरिक्त पठानिया वंश भी पांडव वंश ही माना जाता है,इसका प्रसिद्ध राज्य नूरपुर है,इसमें वजीर राम सिंह पठानिया बहुत प्रसिद्ध यौद्धा हुए हैं.जिन्होंने अंग्रेजो को नाको चने चबवा दिए थे.

इन शाखाओं में रूनेचा राजस्थान में,ग्वेलेरा चम्बल क्षेत्र में,बेरुआर यूपी बिहार सीमा पर,बिलदारिया कानपूर उन्नाव के पास,इन्दोरिया मथुरा, बुलन्दशहर,आगरा में मिलते हैं,मेरठ मुजफरनगर के सोमाल वंश भी पांडव वंश माना जाता है,जाटू तंवर राजपूतो की भिवानी हरियाणा में 1440 गाँव की रियासत थी,इस शाखा के तंवर राजपूत हरियाणा में मिलते हैं,जंघारा राजपूत यूपी के अलीगढ,बदायूं,बरेली शाहजहांपुर आदि जिलो में मिलते हैं,ये बहुत वीर यौद्धा माने जाते हैं इन्होने रुहेले पठानों को कभी चैन से नहीं बैठने दिया,और अहिरो को भगाकर अपना राज स्थापित किया…

पूर्वी उत्तर प्रदेश का जनवार राजपूत वंश भी पांडववंशी जन्मेजय का वंशज माना जाता है। इस वंश की बलरामपुर समेत कई बड़ी स्टेट पूर्वी यूपी में हैं।

इनके अतिरिक्त पाकिस्तान में मुस्लिम जंजुआ राजपूत भी पांडव वंशी कहे जाते हैं जंजुआ वंश ही शाही वंश था जिसमे जयपाल,आनंदपाल,जैसे वीर हुए जिन्होंने तुर्क महमूद गजनवी का मुकाबला बड़ी वीरता से किया था,जंजुआ राजपूत बड़े वीर होते हैं और पाकिस्तान की सेना में इनकी बडी संख्या में भर्ती होती है.इसके अलावा वहां का जर्राल वंश भी खुद को पांडव वंशी मानता है,

मराठो में भी एक वंश तंवरवंशी है जो तावरे या तावडे कहलाता है ,महादजी सिंधिया का एक सेनापति फाल्किया खुद को बड़े गर्व से तंवर वंशी मानता था.

तोमर/तंवर राजपूतो की वर्तमान आबादी——-

तोमर राजपूत वंश और इसकी सभी शाखाएँ न सिर्फ भारत बल्कि पाकिस्तान में भी बड़ी संख्या में मिलती है,चम्बल क्षेत्र में ही तोमर राजपूतो के 1400 गाँव हैं,इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिलखुआ के पास तोमरो के 84 गाँव हैं,भिवानी में 84 गाँव जिनमे बापोड़ा प्रमुख है,,मेरठ में गढ़ रोड पर 12 गाँव जिनमे सिसोली और बढ्ला बड़े गाँव हैं,

कुरुक्षेत्र में 12 गाँव,गढ़मुक्तेश्वर में 42 गाँव हैं जिनमे भदस्याना और भैना प्रसिद्ध हैं. बुलन्दशहर में 24 गाँव,खुर्जा के पास 5 गाँव तोमर राजपूतो के हैं,हरियाणा में मेवात के नूह के पास 24 गाँव हैं जिनमे बिघवाली प्रमुख है.

ये सिर्फ वेस्ट यूपी और हरियाणा का थोडा सा ही विवरण दिया गया है,इनकी जनसँख्या का,अगर इनकी सभी प्रदेशो और पाकिस्तान में हर शाखाओ की संख्या जोड़ दी जाये तो इनके कुल गाँव की संख्या कम से कम 6000 होगी,चौहान राजपूतो के अलावा राजपूतो में शायद ही कोई वंश होगा जिसकी इतनी बड़ी संख्या हो.

जाट, गूजर और अहीर में तोमर राजपूतो से निकले गोत्र———–


कुछ तोमर राजपूत अवनत होकर या तोमर राजपूतो के दूसरी जाती की स्त्रियों से सम्बन्ध होने से तोमर वंश जाट, गूजर और अहीर जैसी जातियो में भी चला गया।जाटों में कई गोत्र है जो अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है जैसे सहरावत ,राठी ,पिलानिया, नैन, मल्लन,बेनीवाल, लाम्बा,खटगर, खरब, ढंड, भादो, खरवाल, सोखिरा,ठेनुवा,रोनिल,सकन,बेरवाल और नारू। ये लोग पहले तोमर या तंवर उपनाम नहीँ लगाते थे लेकिन इनमे से कई गोत्र अब तोमर या तंवर लगाने लगे है। उत्तर प्रदेश के बड़ौत क्षेत्र के सलखलेन् जाट भी अपने को किसी सलखलेन् का वंशज बताते है जिसे ये अनंगपाल तोमर का धेवता बताते है और इस आधार पर अपने को तोमर बताने लगे है।गूँजरो में भी तोमर राजपूतो के अवशेष मिलते है। खटाना गूजर अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है। ग्वालियर के पास तोंगर गूजर मिलते है जो ग्वालियर के राजा मान सिंह तोमर की गूजरी रानी मृगनयनी के वंशज है जिन्हें गूजरी माँ की औलाद होने के कारण राजपूतों ने स्वीकार नहीँ किया। दक्षिणी दिल्ली में भी तँवर गूजरों के गाँव मिलते है। मुस्लिम शाशनकाल में जब तोमर राजपूत दिल्ली से निष्काषित होकर बाकी जगहों पर राज करने चले गए तो उनमे से कुछ ने गूजर में शादी ब्याह कर मुस्लिम शासकों के अधीन रहना स्वीकार किया।इसके अलावा सहारनपुर में छुटकन गुर्जर भी खुद को तंवर वंश से निकला मानते हैं और करनाल,पानीपत ,सोहना के पास भी कुछ गुज्जर इसी तरह तंवर सरनेम लिखने लगे हैं,हरयाणा के अहिरो में भी दयार गोत्र मिलती है जो अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है।दिल्ली में रवा राजपूत समाज में भी तंवर वंश शामिल हो गया है…..


इस प्रकार हम देखते हैं कि चन्द्रवंशी पांडव वंश तोमर/तंवर राजपूतो का इतिहास बहुत शानदार रहा है,वर्तमान में भी तोमर राजपूत राजनीति,सेना,प्रशासन,में अपना दबदबा कायम किये हुए है,पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह भिवानी हरियाणा के तंवर राजपूत हैं,और आज केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं,मध्य प्रदेश के नरेंद्र सिंह तोमर भी केंद्र सरकार में मंत्री हैं,प्रसिद्ध एथलीट और बाद में मशहूर बागी पान सिंह तोमर के बारे में सभी जानते ही हैं,स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद बिस्मिल भी तोमर राजपूत थे,इनके अतिरिक्त सैंकड़ो राजनीतिज्ञ,प्रशासनिक अधिकारी,समाजसेवी,सैन्य अधिकारी,खिलाडी तंवर वंशी राजपूत हैं

तोमर क्षत्रिय राजपूतो के बारे में कहा गया है की


“अर्जुन के सुत सो अभिमन्यु नाम उदार.

तिन्हते उत्तम कुल भये तोमर क्षत्रिय उदार.”


सेंगर राजपूत वंश


 


मित्रों आज हम आपको मध्य और पूर्वी उत्तर

प्रदेश,बिहार,मध्य प्रदेश में बहुतायत में निवास करने

वाले एक जुझारू क्षत्रिय राजपूत वंश “सेंगर वंश ” पर

जानकारी देंगे.

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सेंगर राजपूत वंश(sengar rajput clan/dynasty)—–

सेंगर राजपूत वंश को 36 कुली सिंगार या क्षत्रियों के

36 कुल का आभूषण भी कहा जाता है, यह बंश न कवल

वीरता एवं जुझारूपन के लिए बल्कि सभ्यता और

सुसंस्कार के लिए भी विख्यात है.

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सेंगर राजपूतो का गोत्र,कुलदेवी इत्यादि————

गोत्र-गौतम,प्रवर तीन-गौतम ,वशिष्ठ,ब्रहास्पतय

वेद-यजुर्वेद ,शाखा वाजसनेयी, सूत्र पारस्कर

कुलदेवी -विंध्यवासिनी देवी

नदी-सेंगर नदी

गुरु-विश्वामित्र

ऋषि-श्रृंगी

ध्वजा -लाल

सेंगर राजपूत विजयादशमी को कटार पूजन करते हैं.

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सेंगर राजपूत वंश की उत्पत्ति(origin of sengar rajput)

इस क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति के विषय में कई मत

प्रचलित हैं,


1- ठाकुर ईश्वर सिंह मडाड द्वारा रचित राजपूत वंशावली के प्रष्ठ संख्या 168,169 के अनुसार”इस वंश की उत्पत्ति के विषय में ब्रह्म पुराण में वर्णन

आता है.चन्द्रवंशी राजा महामना के दुसरे पुत्र तितुक्षू ने पूर्वी भारत में अपना राज्य स्थापित किय,इस्नके वंशज प्रतापी राजा बलि हुए,इनके अंग,बंग,कलिंग आदि 5 पुत्र हुए जो बालेय कहलाते थे,राजा अंग ने अपने नाम से अंग देश बसाया,इनके वंशज दधिवाहन, दिविरथ,धर्मरथ, दशरथ(लोमपाद),कर्ण विकर्ण आदि हुए. विकर्ण के सौ पुत्र हुए जिन्होंने अपने राज्य

का विस्तार गंगा यमुना के दक्षिण से लेकर चम्बल नदी तक किया.अंग देश के बाद इस वंश के नरेशो ने

चेदी प्रदेश(डाहल प्रदेश), राढ़(कर्ण सुवर्ण),आंध्र प्रदेश(आंध्र नाम के शातकर्णी राजा ने स्थापित किया,इस वंश के प्रतापी राजा गौतमी पुत्र शातकर्णी थे),सौराष्ट्र,मालवा,आदि राज्य स्थापित किए,


राड प्रदेश(वर्दमान)के सेंगर वंशी राजा सिंह के पुत्र सिंहबाहु हुए,उनके पुत्र विजय ने सन 543 ईस्वी में समुद्र मार्ग से जाकर लंका विजय की और अपने पिता के नाम पर वहां सिंहल राज्य स्थापित किया.सिंहल ही बाद में सीलोन कहा जाने लगा. विकर्ण के सौ पुत्र होने के कारण ही ये

शातकर्णी कहलाते थे,शातकर्णी से ही धीरे धीरे ये सेंगरी,सिंगर,सेंगर कहलाने लगे.इस मत के अनुसार सेंगर

चन्द्रवंशी क्षत्रिय हैं. यह बहुत ठोस तर्क है इस वंश की उत्पत्ति का,अब

बाकि मत पर नजर डालते हैं,

2-एक अन्य मत के अनुसार भगवान श्रीराम के पिता राजा दशरथ ने अपनी पुत्री शांता का विवाह

श्रृंगी ऋषि से किया,प्राचीन काल में क्षत्रिय राजा के साथ साथ ज्ञानी ऋषि भी हुआ करते

थे,श्रृंगी ऋषि की संतान से ही सेंगर वंश चला.इस मत के अनुसार यह ऋषि वंश है.

3-एक अन्य मत के अनुसार श्रृंगी ऋषि का विवाह कन्नौज के गहरवार राजा की पुत्री से हुआ,उसके दो पुत्र हुए,एक ने अर्गल के गौतम वंश की नीव रखी और दुसरे पदम से सेंगर वंश चला,इस मत के अविष्कारक ने

लिखा कि 135 पीढ़ियों तक सेंगर वंश पहले सीलोन (लंका) फिर मालवा होते हुए ग्यारहवी सदी में

जालौन में कनार में स्थापित हुए. किन्तु यह मत बिलकुल गलत है,क्योंकि पहले तो अर्गल

का गौतम वंश,सूर्यवंशी क्षत्रिय गौतम बुध का वंशज है और दूसरी बात कि कन्नौज में गहरवार वंश का शासन

ही दसवी सदी के बाद शुरू हुआ तो उससे 135 पीढ़ी पहले वहां के गहरवार राजा की पुत्री से श्रृंगी ऋषि का विवाह होना असम्भव है.

4-एक मत के अनुसार यह वंश 36 कुल सिंगर या क्षत्रियों के 36 कुल का श्रृंगार(आभुषण ) भी कहलाता है,इसी से इस वंश का नाम बिगड़कर सेंगर

हो गया.

5-उपरोक्त सभी मतों को देखते हुए एवं कुछ स्वतंत्र अध्यन्न करने के बाद हमारा स्वयं का अनुमान———- मत संख्या 1 के अनुसार इस वंश के पुरखों ने पूर्वी भारत में अंग,बंग(बंगाल) आदि राज्यों की स्थापना की थी,इन्ही की शाखा ने

आंध्र कर्नाटका क्षेत्र में आन्ध्र शातकर्णी वंश की स्थापना की,इसी वंश में गौतमी पुत्र शातकर्णी जैसा विजेता हुआ,जिसने अपने राज्य

की सीमाएं दक्षिण भारत से लेकर उत्तर,पश्चिम भारत,पूर्वी भारत तक फैलाई.उसके बारे में लिखा है कि उसके घोड़ो ने तीन समुद्रों का पानी पिया,

गौतमी पुत्र की बंगाल विजय के बाद उसके कुछ वंशगण यहीं रह गये,जो सेन वंशी क्षत्रिय कहलाते थे,सेन वंशी क्षत्रिय को ब्रह्मक्षत्रिय(ऋषिवंश) या कर्नाट क्षत्रिय(दक्षिण आन्ध्र कर्नाटक से आने के कारण) भी कहा जाता था.पश्चिम बंगाल का एक नाम गौर

(गौड़)क्षत्रियों के नाम पर गौड़ देश भी था,पाल वंश के बाद बंगाल में सेन वंश का शासन स्थापित हुआ, गौर देश (बंगाल) पर शासन करने के कारण सेन वंशी क्षत्रिय सेनगौर या सेनगर या सेंगर कहलाने लगे. (बंगाल में आज भी सिंगूर नाम की प्रसिद्ध जगह है).कालान्तर में इस वंश के जो शासक

चेदी प्रदेश,मालवा,जालौन,कनार आदि स्थानों पर शासन कर रहे थे वो भी सेंगर वंश के नाम से विख्यात

हुए, इस प्रकार हमारे मत के अनुसार यह वंश चंद्रवंशी है और

इस वंश के शासको के विद्वान और ब्रह्मज्ञानी होने

के कारण इसे ब्रह्म क्षत्रिय(ऋषि वंशी) भी कहा जाता है, श्रीलंका में सिंहल वंश की स्थापना भी सन 543

ईस्वी में सेंगर वंशी क्षत्रियों ने की थी,चित्तौड के राणा रत्न सिंह की प्रसिद्ध रानी पदमिनी सिंहल दीप की राजकुमारी थी जो संभवत इसी वंश की थी,

आंध्र सातवाहन शातकर्णी वंश के गौतमी पुत्र शातकर्णी भी इसी वंश के थे जिन्होने पुरे भारत परअपना आधिपत्य जमाया.

सेंगर वंशी क्षत्रियों के राज्य(states established and

ruled by sengar rajputs)

उपर हम बता ही चुके हैं कि प्राचीन काल में सेंगर

क्षत्रियों का शासन अंग, बंग,आंध्र,राढ़, सिंहल दीप

आदि पर रहा है,अब हम मध्य काल में सेंगर क्षत्रियों के

राज्यों पर जानकारी देंगे.

1-चेदी अथवा डाहल प्रदेश——–

सेंगर क्षत्रियों का सबसे स्थाई और बड़ा शासन

चेदी प्रदेश पर रहा है,यहाँ का सेंगर वंशी राजा डाहल

देव था जो महात्मा बुद्ध के समकालीन

थे,इन्ही डहरिया या डाहलिया कहलाते हैं जो सेंगर

वंश की शाखा हैं,बाद में इनके प्रदेश पर चंदेल व

कलचुरी वंशो ने अधिकार कर लिया,

2–कर्णवती————–

जब सेंगर राज्य बहुत छोटा रह गया तो राजा कर्णदेव

सेंगर ने यह राज्य अपने पुत्र वनमाली देव को देकर

यमुना और चर्मन्व्ती के संगम पर कर्णवती राज्य

स्थापित किया आजकल यह क्षेत्र रीवा राज्य के

अंतर्गत आता है.

3-कनार राज्य ———-

जालौन में राजा विसुख देव ने कनार राज्य स्थापित

किया,उनका विवाह कन्नौज के गहरवार

राजा की पुत्री देवकाली से हुआ.जिसके नाम पर

उन्होंने देवकली नगर बसाया,उन्होंने बसीन्द

नदी का नाम बदलकर अपने वंश के नाम पर सेंगर नदी रख

दियाजो आज भी मैनपुरी,इटावा,कानपुर जिले से

हो कर बह रही है.बिसुख देव के वंशधर जगमनशाह ने

बाबर का सामना किया था,कनार राज्य नष्ट होने

पर जगमनशाह ने जालौन में ही जगमनपुर राज्य

की नीव रखी,आज भी इस वंश के राजपूत

जगमनपुर,कनार के आस पास 57 गाँवो में रहते हैं और

कनारधनी कहलाते हैं,


सेंगर वंशी क्षत्रियों के राज्य(states established and

ruled by sengar rajputs)

उपर हम बता ही चुके हैं कि प्राचीन काल में सेंगर

क्षत्रियों का शासन अंग, बंग,आंध्र,राढ़, सिंहल दीप

आदि पर रहा है,अब हम मध्य काल में सेंगर क्षत्रियों के

राज्यों पर जानकारी देंगे.

1-चेदी अथवा डाहल प्रदेश——–

सेंगर क्षत्रियों का सबसे स्थाई और बड़ा शासन

चेदी प्रदेश पर रहा है,यहाँ का सेंगर वंशी राजा डाहल

देव था जो महात्मा बुद्ध के समकालीन

थे,इन्ही डहरिया या डाहलिया कहलाते हैं जो सेंगर

वंश की शाखा हैं,बाद में इनके प्रदेश पर चंदेल व

कलचुरी वंशो ने अधिकार कर लिया,

2–कर्णवती————–

जब सेंगर राज्य बहुत छोटा रह गया तो राजा कर्णदेव

सेंगर ने यह राज्य अपने पुत्र वनमाली देव को देकर

यमुना और चर्मन्व्ती के संगम पर कर्णवती राज्य

स्थापित किया आजकल यह क्षेत्र रीवा राज्य के

अंतर्गत आता है.

3-कनार राज्य ———-

जालौन में राजा विसुख देव ने कनार राज्य स्थापित

किया,उनका विवाह कन्नौज के गहरवार

राजा की पुत्री देवकाली से हुआ.जिसके नाम पर

उन्होंने देवकली नगर बसाया,उन्होंने बसीन्द

नदी का नाम बदलकर अपने वंश के नाम पर सेंगर नदी रख

दियाजो आज भी मैनपुरी,इटावा,कानपुर जिले से

हो कर बह रही है.बिसुख देव के वंशधर जगमनशाह ने

बाबर का सामना किया था,कनार राज्य नष्ट होने

पर जगमनशाह ने जालौन में ही जगमनपुर राज्य

की नीव रखी,आज भी इस वंश के राजपूत

जगमनपुर,कनार के आस पास 57 गाँवो में रहते हैं और

कनारधनी कहलाते हैं,


सेंगर राजपूतो के अन्य राज्य ——–

सेंगर वंश का शासन मालवा की सिरोज राज्य पर

भी रहा है,सेंगर वंश के रेलिचंद्र्देव ने इटावा में भरेह

राज्य स्थापित किया,

13 वी सदी में इस वंश के फफूंद के कुछ सेंगर राजपूतो ने

बलिया जिले के लाखेनसर में राज्य स्थापित

किया जो 18 वी सदी तक चला,लाखेनसर के सेंगर

राजपूतो ने बनारस के भूमिहार राजा बलवंत सिंह और

अंग्रेजो का डटकर सामना किया,

इस वंश की रियासते एवं ठिकानो में जगमनपुर (जालौन),भरेह(इटावा),रुरु और भीखरा के राजा,नकौता के राव एवं कुर्सी के रावत प्रसिद्ध हैं.

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सेंगर वंश की शाखाएँ एवं वर्तमान निवास स्थान

(branches of sengar rajputs) सेंगर राजपूतो की प्रमुख शाखाएँ चुटू,कदम्ब,बरहि

या(बिहार,बंगाल,असम आदि में),डाहलिया,दाहारिया आदि हैं. सेंगर राजपूत आज बड़ी संख्या में मध्य प्रदेश,यूपी के

जालौन, अलीगढ, फतेहपुर,कानपूर वाराणसी,बलिया,इटावा,मैनपुरी,बिहार के छपरा,पूर्णिया आदि जिलो में मिलते हैं.तथा राजनीति,शिक्षा,नौकरी,कृषि,व्यापार के मामले में इनका अपने इलाको में बहुत वर्चस्व है.


 


 


प्रतिहार वंश


 


 


आज की यह पोस्ट,मर्यादा पुरुषोत्तम सुर्यवंश शिरोमणि प्रभु श्री राम के भ्राता लक्ष्मण जी से निकास माने जाने वाले प्रतापी प्रतिहार वंश पर केन्द्रित है।


यूँ तो प्रतिहारो की उत्पत्ति पर कई सारे मत है,किन्तु उनमे से अधिकतर कपोल कल्पनाओं के अलावा कुछ नहीं है। प्राचीन साहित्यों में प्रतिहार का अर्थ “द्वारपाल” मिलता है। अर्थात यह वंश विश्व के मुकुटमणि भारत के पश्चिमी द्वारा अथवा सीमा पर शासन करने के चलते ही प्रतिहार कहलाया।


अब प्रतिहार वंश की उत्पत्ति के बारे में जो भ्रांतियाँ है उनका निराकारण करते है। एक मान्यता यह है की ये वंश अबू पर्वत पर हुए यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न हुआ है,जो सरासर कपोल कल्पना है।हो सकता है अबू पर हुए यज्ञ में इस वंश की हाजिरी के कारण इस वंश के साथ साथ अग्निवंश की कथा रूढ़ हो गई हो। खैर अग्निवंश की मान्यता कल्पना के अलावा कुछ नहीं हो सकती और ऐसी कल्पित मान्यताये इतिहास में महत्त्व नहीं रखती।


इस वंश की उत्पत्ति के संबंध में प्राचीन साहित्य,ग्रन्थ और शिलालेख आदि क्या कहते है इसपर भी प्रकाश डालते है।


१) सोमदेव सूरी ने सन ९५९ में यशस्तिलक चम्पू में गुर्जर देश का वर्णन किया है। वह लिखता है कि न केवल प्रतिहार बल्कि चावड़ा,चालुक्य,आदि वंश भी इस देश पर राज करने के कारण गुर्जर कहलाये।


२) विद्व शाल मंजिका,सर्ग १,श्लोक ६ में राजशेखर ने कन्नौज के प्रतिहार राजा भोजदेव के पुत्र महेंद्र को रघुकुल तिलक अर्थात सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया है।


३)कुमारपाल प्रबंध के पृष्ठ १११ पर भी गुर्जर देश का वर्णन है…


कर्णाटे,गुर्जरे लाटे सौराष्ट्रे कच्छ सैन्धवे।

उच्चाया चैव चमेयां मारवे मालवे तथा।।


४) महाराज कक्कूड का घटियाला शिलालेख भी इसे लक्ष्मण का वंश प्रमाणित करता है….अर्थात रघुवंशी


रहुतिलओ पड़ीहारो आसी सिरि लक्खणोत्रि रामस्य।

तेण पडिहार वन्सो समुणई एत्थ सम्प्तो।।


५) बाउक प्रतिहार के जोधपुर लेख से भी इनका रघुवंशी होना प्रमाणित होता है।(९ वी शताब्दी)


स्वभ्राता राम भद्रस्य प्रतिहार्य कृतं सतः।

श्री प्रतिहारवड शोयमत श्रोन्नतिमाप्युयात।


इस शिलालेख के अनुसार इस वंश का शासनकाल गुजरात में प्रकाश में आया था।


६) चीनी यात्री हुएन्त त्सांग ने गुर्जर राज्य की राजधानी पीलोमोलो,भीनमाल या बाड़मेर कहा है।


७) भोज प्रतिहार की ग्वालियर प्रशस्ति


मन्विक्षा कुक्कुस्थ(त्स्थ) मूल पृथवः क्ष्मापल कल्पद्रुमाः।

तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहतपदे धाम्नि वज्रैशु घोरं,

राम: पौलस्त्य हिन्श्रं क्षतविहित समित्कर्म्म चक्रें पलाशे:।

श्लाध्यास्त्स्यानुजो सौ मधवमदमुषो मेघनादस्य संख्ये,

सौमित्रिस्तिव्रदंड: प्रतिहरण विर्धर्य: प्रतिहार आसी।

तवुन्शे प्रतिहार केतन भृति त्रैलौक्य रक्षा स्पदे

देवो नागभट: पुरातन मुने मुर्तिर्ब्बमूवाभदुतम।


अर्थात-सुर्यवंश में मनु,इश्वाकू,कक्कुस्थ आदि राजा हुए,उनके वंश में पौलस्त्य(रावण) को मारने वाले राम हुए,जिनका प्रतिहार उनका छोटा भाई सौमित्र(सुमित्रा नंदन लक्ष्मण) था,उसके वंश में नागभट हुआ। इसी प्रशस्ति के सातवे श्लोक में वत्सराज के लिए लिखा है क़ि उस क्षत्रिय पुंगव(विद्वान्) ने बलपूर्वक भड़ीकुल का साम्राज्य छिनकर इश्वाकू कुल की उन्नति की।


८) देवो यस्य महेन्द्रपालनृपति: शिष्यों रघुग्रामणी:(बालभारत,१/११)


तेन(महिपालदेवेन)च रघुवंश मुक्तामणिना(बालभारत)


बालभारत में भी महिपालदेव को रघुवंशी कहा है।


९)ओसिया के महावीर मंदिर का लेख जो विक्रम संवत १०१३(ईस्वी ९५६) का है तथा संस्कृत और देवनागरी लिपि में है,उसमे उल्लेख किया गया है कि-


तस्या कार्षात्कल प्रेम्णालक्ष्मण: प्रतिहारताम ततो अभवत प्रतिहार वंशो राम समुव:।।६।।

तदुंदभशे सबशी वशीकृत रिपु: श्री वत्स राजोडsभवत।


अर्थात लक्ष्मण ने प्रेमपूर्वक उनके प्रतिहारी का कार्य किया,अनन्तर श्री राम से प्रतिहार वंश की उत्पत्ति हुई। उस प्रतिहार वंश में वत्सराज हुआ।


१०) गौडेंद्रवंगपतिनिर्ज्जयदुर्व्विदग्धसदगुर्ज्जरेश्वरदिगर्ग्गलतां च यस्य।

नीत्वा भुजं विहतमालवरक्षणार्त्थ स्वामी तथान्यमपि राज्यछ(फ) लानि भुंक्ते।।

-बडोदे का दानपत्र,Indian Antiquary,Vol 12,Page 160


उक्त ताम्रपत्र के ‘गुजरेश्वर’ एद का अर्थ ‘गुर्जर देश(गुजरात) का राजा’ स्पष्ट है,जिसे खिंच तानकर गुर्जर जाती या वंश का राजा मानना सर्वथा असंगत है। संस्कृत साहित्य में कई ऐसे उदाहरण मिलते है।


ये लेख गुजरेश्वर,गुर्जरात्र,गुज्जुर इन संज्ञाओ का सही मायने में अर्थ कर इसे जाती सूचक नहीं स्थान सूचक सिद्ध करता है जिससे भगवान्लाल इन्द्रजी,देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर,जैक्सन तथा अन्य सभी विद्वानों के मतों को खारिज करता है जो इस सज्ञा के उपयोग से प्रतिहारो को गुर्जर मानते है।


११) कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय में गुर्जरों का भारतवर्ष में आना प्रमाणशून्य बात है,जिसे स्वयं डॉ.भगवानलाल इन्द्रजी ने स्वीकार किया है,और गुप्तवंशियों के समय में गुजरो को राजपूताना,गुजरात और मालवे में जागीर मिलने के विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया है। न तो गुप्त राजाओं के लेखो और भडौच से मिले दानपत्रों में इसका कही उल्लेख है।


१२)३६ राजवंशो की किसी भी सूची में इस वंश के साथ “गुर्जर” एद का प्रयोग नहीं किया गया है। यह तथ्य भी गुर्जर एद को स्थानसूचक सिद्धकर सम्बंधित एद का कोइ विशेष महत्व नही दर्शाता।


१३)ब्राह्मण उत्पत्ति के विषय में इस वंश के साथ द्विज,विप्र यह दो संज्ञाए प्रयुक्त की गई है,तो द्विज का अर्थ ब्राह्मण न होकर द्विजातिय(जनेउ) संस्कार से है न की ब्राह्मण से। ठीक इसी तरह विप्र का अर्थ भी विद्वान पंडित अर्थात “जिसने विद्वत्ता में पांडित्य हासिल किया हो” ही है।


१४) कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय में गुर्जरों का भारतवर्ष में आना प्रमाणशून्य बात है,जिसे स्वयं डॉ.भगवानलाल इन्द्रजी ने स्वीकार किया है,और गुप्तवंशियों के समय में गुजरो को राजपूताना,गुजरात और मालवे में जागीर मिलने के विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया है। न तो गुप्त राजाओं के लेखो और भडौच से मिले दानपत्रों में इसका कही उल्लेख है।


उपरोक्त सभी प्रमाणों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है की,प्रतिहार वंश निस्संदेह भारतीय मूल का है तथा शुद्ध क्षत्रिय राजपूत वंश है।


प्रतिहार वंश

संस्थापक- हरिषचन्द्र

वास्तविक – नागभट्ट प्रथम (वत्सराज)

पाल -धर्मपाल

राष्ट्रकूट-ध्रव

प्रतिहार-वत्सराज

राजस्थान के दक्षिण पष्चिम में गुर्जरात्रा प्रदेष में प्रतिहार वंष की स्थापना हुई। ये अपनी उत्पति लक्ष्मण से मानते है। लक्षमण राम के प्रतिहार (द्वारपाल) थे। अतः यह वंष प्रतिहार वंष कहलाया। नगभट्ट प्रथम पष्चिम से होने वाले अरब आक्रमणों को विफल किया। नागभट्ट प्रथम के बाद वत्सराज षासक बना। वह प्रतिहार वंष का प्रथम षासक था जिसने त्रिपक्षीप संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष/त्रिराष्ट्रीय संघर्ष में भाग लिया।

त्रिपक्षीय संघर्ष:- 8 वीं से 10 वीं सदी के मध्य लगभग 200 वर्षो तक पष्चिम के प्रतिहार पूर्व के पाल और दक्षिणी भारत के राष्ट्रकूट वंष ने कन्नौज की प्राप्ति के लिए जो संघर्ष किया उसे ही त्रिपक्षीय संघर्ष कहा जाता है।


नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज के पष्चात् षक्तिषाली षासक हुआ उसने भी अरबों को पराजित किया किन्तु कालान्तर में उसने गंगा में डूब आत्महत्या कर ली।


मिहिर भोज प्रथम – इस वंष का सर्वाधिक षक्तिषाली षासक इसने त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लेकर कन्नौज पर अपना अधिकार किया और प्रतिहार वंष की राजधानी बनाया। मिहिर भोज की उपब्धियों की जानकारी उसके ग्वालियर लेख से प्राप्त होती है।

– आदिवराह व प्रीस की उपाधी धारण की।

-आदिवराह नामक सिक्के जारी किये।

मिहिर भोज के पष्चात् महेन्द्रपाल षासक बना। इस वंष का अन्तिम षासक गुर्जर प्रतिहार वंष के पतन से निम्नलिखित राज्य उदित हुए।

मारवाड़ का राठौड़ वंष

मेवाड़ का सिसोदिया वंष

जैजामुक्ति का चन्देष वंष

ग्वालियर का कच्छपधात वंष


गुर्जर-प्रतिहार

8वीं से 10वीं षताब्दी में उत्तर भारत में प्रसिद्ध राजपुत वंष गुर्जर प्रतिहार था। राजस्थान में प्रतिहारों का मुख्य केन्द्र मारवाड़ था। पृथ्वीराज रासौ के अनुसार प्रतिहारों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई है।

प्रतिहार का अर्थ है द्वारपाल प्रतिहार स्वयं को लक्ष्मण वंषिय सूर्य वंषीय या रधुकुल वंषीय मानते है। प्रतिहारों की मंदिर व स्थापत्य कला निर्माण षैली गुर्जर प्रतिहार षैली या महामारू षैली कहलाती है। प्रतिहारों ने अरब आक्रमण कारीयों से भारत की रक्षा की अतः इन्हें “द्वारपाल”भी कहा जाता है। प्रतिहार गुर्जरात्रा प्रदेष (गुजरात) के पास निवास करते थे। अतः ये गुर्जर – प्रतिहार कहलाएं। गुर्जरात्रा प्रदेष की राजधानी भी


मुहणौत नैणसी (राजपुताने का अबुल-फजल) के अनुसार गुर्जर प्रतिहारों की कुल 26 शाखाएं थी। जिमें से मण्डोर व भीनमाल शाखा सबसे प्राचीन थी।

मण्डौर शाखा का संस्थापक – हरिचंद्र था।

गुर्जर प्रतिहारों की प्रारम्भिक राजधानी -मण्डौर


भीनमाल शाखा

1. नागभट्ट प्रथम:- नागभट्ट प्रथम ने 730 ई. में भीनमाल में प्रतिहार वंश की स्थापना की तथा भीनमाल को प्रतिहारों की राजधानी बनाया।

2. वत्सराज द्वितीय:- वत्सराज भीनमाल प्रतिहार वंश का वास्तिवक संस्थापक था। वत्सराज को रणहस्तिन की उपाधि प्राप्त थी। वत्सराज ने औसियां के मंदिरों का निर्माण करवाया। औसियां सूर्य व जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इसके समय उद्योतन सूरी ने “कुवलयमाला” की रचना 778 में जालौर में की। औसियां के मंदिर महामारू षैली में बने है। लेकिन औसियां का हरिहर मंदिर पंचायतन षैली में बना है।

-औसियां राजस्थान में प्रतिहारों का प्रमुख केन्द्र था।

-औसिंया (जोधपुर)के मंदिर प्रतिहार कालीन है।

-औसियां को राजस्थान को भुवनेष्वर कहा जाता है।

-औसियां में औसिया माता या सच्चिया माता (ओसवाल जैनों की देवी) का मंदिर है जिसमें महिसासुर मर्दनी की प्रतिमा है।

-जिनसेन ने “हरिवंश पुराण ” की रचना की।

वत्सराज ने त्रिपक्षिय संर्घष की षुरूआत की तथा वत्सराज राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से पराजित हुआ।


त्रिपक्षिय/त्रिराष्ट्रीय संर्घष

कन्नौज को लेकर उत्तर भारत की गुर्जर प्रतिहार पूर्व में बंगाल का पाल वंश तथा दक्षिणी भारत का राष्ट्रवंश के बीच 100 वर्षो तक के चले संघर्ष को त्रिपक्षिय संघर्ष कहा जाता है।


3. नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज व सुन्दर देवी का पुत्र। नागभट्ट द्वितीय ने अरब आक्रमणकारियों पर पूर्णतयः रोक लगाई। नागभट्ट द्वितीय ने गंगा समाधि ली। नागभट्ट द्वितीय ने त्रिपक्षिय संघर्ष में कन्नौज को जीतकर सर्वप्रथम प्रतिहारों की राजधानी बनाया।

4. मिहिर भोज (835-885 ई.):- मिहिर भोज को आदिवराह व प्रभास की उपाधि प्राप्त थी। मिहिर भोज वेष्णों धर्म का अनुयायी था। मिहिरभोज प्रतिहारों का सबसे अधिक शक्तिषाली राजा था। इस काल चर्मात्कर्ष का काल था। मिहिर भोज ने चांदी के द्रुम सिक्के चलवाये। मिहिर भोज को भोज प्रथम भी कहा जाता है। ग्वालियर प्रशक्ति मिहिर भोज के समय लिखी गई।

851 ई. में अरब यात्री सुलेमान न मिहिर भोज के समय भारत यात्रा की। अरबीयात्री सुलेमान व कल्वण ने अपनी राजतरंगिणी (कष्मीर का इतिहास) में मिहिर भोज के प्रषासन की प्रसंषा की। सुलेमान ने भोज को इस्लाम का शत्रु बताया।

5. महिन्द्रपाल प्रथम:- इसका गुरू व आश्रित कवि राजषेखर था। राजषेखर ने कर्पुर मंजरी, काव्य मिमांसा, प्रबंध कोष हरविलास व बाल रामायण की रचना की। राजषेखर ने महेन्द्रपाल प्रथम को निर्भय नरेश कहा है।


6. महिपाल प्रथम:- राजषेखर महिपाल प्रथम के दरबार में भी रहा। 915 ई. में अरब यात्री अली मसुदी ने गुर्जर व राजा को बोरा कहा है।

7. राज्यपाल:- 1018 ई. में मुहम्मद गजनवी ने प्रतिहार राजा राज्यपाल पर आक्रमण किया।

8. यशपाल:- 1036 ई. में प्रतिहारों का अन्तिम राजा यशपाल था।

भीनमाल:- हेनसांग/युवाचांग न राजस्थान में भीनमाल व बैराठ की यात्रा की तथा अपने ग्रन्थ सियू की मे भीनमाल को पोनोमोल कहा है। गुप्तकाल के समय का प्रसिद्व गणितज्ञ व खगोलज्ञ ब्रहमागुप्त भीनमाल का रहने वाला था जिससे ब्रहमाण्ड की उत्पत्ति का सिद्धान्त ” ब्रहमास्फुट सिद्धान्त (बिग बैन थ्यौरी) का प्रतिपादन किया।


-प्रतिहार राजपूतो की वर्तमान स्थिति—


भले ही यह विशाल प्रतिहार राजपूत साम्राज्य बाद में खण्डित हो गया हो लेकिन इस वंश के वंशज राजपूत आज भी इसी साम्राज्य की परिधि में मिलते हैँ।

उत्तरी गुजरात और दक्षिणी राजस्थान में भीनमाल के पास जहाँ प्रतिहार वंश की शुरुआत हुई, आज भी वहॉ प्रतिहार राजपूत पड़िहार आदि नामो से अच्छी संख्या में मिलते हैँ।


प्रतिहारों की द्वितीय राजधानी मारवाड़ में मंडोर रही। जहाँ आज भी प्रतिहार राजपूतो की इन्दा शाखा बड़ी संख्या में मिलती है। राठोड़ो के मारवाड़ आगमन से पहले इस क्षेत्र पर प्रतिहारों की इसी शाखा का शासन था जिनसे राठोड़ो ने जीत कर जोधपुर को अपनी राजधानी बनाया। 17वीं सदी में भी जब कुछ समय के लिये मुगलो से लड़ते हुए राठोड़ो को जोधपुर छोड़ना पड़ गया था तो स्थानीय इन्दा प्रतिहार राजपूतो ने अपनी पुरातन राजधानी मंडोर पर कब्जा कर लिया था।


इसके अलावा प्रतिहारों की अन्य राजधानी ग्वालियर और कन्नौज के बीच में प्रतिहार राजपूत परिहार के नाम से बड़ी संख्या में मिलते हैँ।

बुन्देल खंड में भी परिहारों की अच्छी संख्या है। यहाँ परिहारों का एक राज्य नागौद भी है जो मिहिरभोज के सीधे वंशज हैँ।


प्रतिहारों की एक शाखा राघवो का राज्य वर्तमान में उत्तर राजस्थान के अलवर, सीकर, दौसा में था जिन्हें कछवाहों ने हराया। आज भी इस क्षेत्र में राघवो की खडाड शाखा के राजपूत अच्छी संख्या में हैँ। इन्ही की एक शाखा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर, अलीगढ़, रोहिलखण्ड और दक्षिणी हरयाणा के गुडगाँव आदि क्षेत्र में बहुसंख्या में है। एक और शाखा मढाढ के नाम से उत्तर हरयाणा में मिलती है


उत्तर प्रदेश में सरयूपारीण क्षेत्र में भी प्रतिहार राजपूतो की विशाल कलहंस शाखा मिलती है। इनके अलावा संपूर्ण मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तरी महाराष्ट्र आदि में(जहाँ जहाँ प्रतिहार साम्राज्य फैला था) अच्छी संख्या में प्रतिहार/परिहार राजपूत मिलते हैँ।


 


सिकरवार राजपूत वंश


 


 


सिकरवार क्षत्रिय राजपूत वंश का संक्षिप्त परिचय


सिकरवार’ शब्द राजस्थान के ‘सिकार’ (Sikar) जिले से बना है।

यह जिला सिकरवार राजपूतों ने ही स्थापित किया था।

इसके बाद इन्होने 823 ई° में “विजयपुर सीकरी” की स्थापना की।

बाद में {{खानवा के युद्ध|}} में जीतने के बाद 1524 ई° में बाबर ने “{{फतेहपुर सीकरी|}}” नाम रख दिया।

इस शहर का निर्माण चित्तोण के महाराज राणा भत्रपति के शाशनकाल में ‘खान्वजी सिकरवार’ के द्वारा हुआ था।


•इतिहास• –––––

1524 ई में ‘राव धाम देव सिंह सिकरवार’ ने “खनहुआ के युद्ध” में राणा संगा (संग्राम सिंह) की {{बाबर|}} के विरुद्ध मदद की।

बाद में अपने वंश को बाबर से बचाने के लिये सीकरी से निकल लिये।


• राव जयराज सिंह सिकरवार के तीन पुत्र क्रमशः थे —

1 – काम देव सिंह सिकरवार(दलपति)

2 – धाम देव सिंह सिकरवार (राणा संगा के मित्र)

3 – विराम सिंह सिकरवार


• काम देव सिंह सिकरवार जो दलखू बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए, ने {{मध्यप्रदेश|}} के जिला {{मुरैना|}} में जाकर अपना वंश चलया।


• कामदेव सिकरवार (दलकू) सिकरवार की वंशावली • ===>>>

चंबल घाटी के सिकरवार राव दलपत सिंह यानि दलखू बाबा के वंशज कहलाते हैं …

दलखू बाबा के गॉंव इस प्रकार हैं –

सिरसैनी – स्थापना विक्रम संवत 1404

भैंसरोली – स्थापना विक्रम संवत 1465

पहाड़गढ़ – स्थापना विक्रम संवत 1503

सिहौरी – स्थापना बिवक्रम संवत 1606

इनके परगना जौरा में कुल 70 गॉंव थे , दलखू बाबा की पहली पत्नी के पुत्र रतनपाल के ग्राम बर्रेंड़ , पहाड़गढ़, चिन्नौनी, हुसैनपुर, कोल्हेरा, वालेरा, सिकरौदा, पनिहारी आदि 29 गॉंव रहे

भैरोंदास त्रिलोकदास के सिहोरी, भैंसरोली, “खांडोली” आदि 11


गॉंव रहे

हैबंत रूपसेन के तोर, तिलावली, पंचमपुरा बागचीनी , देवगढ़ आदि 22 गॉंव रहे

दलखू बाबा की दूसरी पत्नी की संतानें – गोरे, भागचंद, बादल, पोहपचंद खानचंद के वंशज कोटड़ा तथा मिलौआ परगना ये सब परगना जौरा के ग्रामों में आबाद हैं , गोरे और बादल मशहूर लड़ाके रहे हैं

राव दलपत सिंह (दलखू बाबा) के वंशजों की जागीरें – 1. कोल्हेरा 2. बाल्हेरा 3. हुसैनपुर 4. चिन्नौनी (चिलौनी) 5. पनिहारी 6. सिकरौदा आदि रहीं

मुरैना जिला में सिहौरी से बर्रेंड़ तक सिकरवार राजपूतों की आबादी है, आखरी गढ़ी सिहोरी की विजय सिकरवारों ने विक्रम संवत 1606 में की उसके बाद मुंगावली और आसपास के क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित किया , इनके आखेट और युद्ध में वीरता के अनेकों वृतांत मिलते हैं ।


दूसरा व्रतांत


वर्ष 1527 र्ड में राजपूत एवं बाबर के बीच हुए खानवा के युद्व में राजपूतों की हार हुई। युद्व में फतेहपुर-सिकरी के राजा धाम देव अपना सब कुछ गवाँ दिया । उनको कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था । वह अपनी कुलदेवी माँ कामाँख्या देवी को याद करने लगे । माँ कामाँख्या ने उन्हे स्वप्न में आदेशित किया कि तुम काशी की तरफ प्रस्थान करे और विश्वामित्र एंव जमदिग्न में तपोभूमि में निवास करो। उनके आदेश से राजा धाम देव काशी की तरफ प्रस्थान कर दिये। उनके साथ उनके परिवार के सदस्य, पुरोहित सेवक इत्यादि साथ थे। वह सबके साथ आगे बढ़ते गये उस समय यहाँ चेरू-राजा शशांक का अधिपत्य था वेा काफी क्रूर थे। राजा धाम देव ने उनके साथ युद्व कर उन्हें पराजित कर दिया तथा इस स्थान पर आधिपत्य स्थापित कर लिया। सकराडीह के पास गंगा के पावन तट पर माँ कामाँख्‍या मंदिर की स्थापना कर निवास करने लगे । उस समय गंगा का बहाव माँ के धाम के पास था। अब गंगा की धारा अब मंदिर से दूर हो गयी है। संकरागढ़ को जीत कर राजा घाम देव ने इसे अपना निवास बनाया तेा पुरोहितो एवं विद्वानो ने राजा घाम देव के नाम के शादिब्क अर्थ पर इस जगह का नामकरण गृहामर किया। इस प्रकार गहमर की स्थापना हुई । मगर भाषा विकार के कारण गृहामर का नाम गहमर हुआ।

प्राचीन काल में गहमर का नाम गृहामर एवं गहवन होने का भी उल्लेख होता है। गाजीपुर गजेटियर में भी गृहामर का ही जिक्र है। कुछ लोगो का मानना है कि अंग्रेजो के भारत आगमन के बाद भाषा विकार के तहत गृहामर का नाम गहमर हो गया। गहमर के स्थापना के विषय में कुछ लोग का मानना है कि ”राजा घाम देव अपने साथीयों के साथ आगें बढ़ते चले जा रहे थे ।पर इस जगह पर काफी धना जंगल था यहाँ जब घाम देव पहुचे तो देखा कि यहाँ बिल्ली को चुहो से भगाते देखा तो उनको लगा इस जगह पर कोई दैव्य शक्ति का चमत्कार है। उन्होनें अपना डेरा यही डाल दिया और इस प्रकार गहमर की स्थापना हुई ”। इतिहास से यह बात प्रमाणित नहीं होती है कहा जाता है 1530 के पहले ही यह क्षेत्र काफी विकसित हो चुका था जिससे तथा चेरू राजा का साम्राज्य था। इस लिये जंगल होने का प्रश्न ही नहीं होता है।


-सिकरवार राजपूत और चैरासी :-


राजा धाम देव सिकरी के राजा थे और वहाँ से आकर ही गृहामर या गहमर की स्थापना किये थे। इस लिये यहाँ के रहने वाले क्षत्रिय वंश के लोग सिकरवार राजपूत कहलाने लगे। सकराडीह – वर्तमान समय में माँ कामाँख्या मंदिर के पास वन विभाग है। वही स्थान सकराडीह के नाम से जाना जाता है। इस स्थान के पास गंगा का बहाव था। बाढ़़ के समय चारो ओर पानी आ जाता था। यह छोटा टीला ही सुरक्षित बचता था। काफी सकरा स्थान लोगो के सुरक्षित रहने के लिये था । इस लिये इस स्थान का नाम सकराड़ीह पड़ा । इसी टीले के नाम से यहाँ के राजपूत सिकरवार कहलाने लगें। सिकरवार वंश के लोग अहिनौरा, हथौरी, देवल, डरवन, महुआरी, विश्रामपुर, भँवतपुरा, बगाढ़ी, मुसिया, पुरबोतिमपरु, तरैथा, सूर्यपुरा, जुझारपुर, कर्मछाता, कन्हुआ, बड़ा सीझूआ, छोटा सीझूआ, चपरागढ़, नईकोट, पुरानी कोट, गोड़सरा ,गोडि़यारी, सागरपर, तुर्कवलिया, पुरैनी, सिमवार, भैरवा, सेवराई, अमौरा, पढियारी, लहना, खुदुरा, समहुता, खरहना, बकइनिया, करहिया सहित 36 गाँवो में फैल गये। जो चैरासी के नाम से जाने जाते है।


 


शेखावत क्षत्रिय वंश


 


शेखावत सूर्यवंशी कछवाह क्षत्रिय वंश की एक शाखा है देशी राज्यों के भारतीय संघ में विलय से पूर्व मनोहरपुर,शाहपुरा, खंडेला,सीकर, खेतडी,बिसाऊ,सुरजगढ़,नवलगढ़, मंडावा,मुकन्दगढ़, दांता,खुड,खाचरियाबास,दूंद्लोद,अलसीसर,मलसिसर,रानोली आदि प्रभाव शाली ठिकाने शेखावतों के अधिकार में थे जो शेखावाटी नाम से प्रशिध है वर्तमान में शेखावाटी की भौगोलिक सीमाएं सीकर और झुंझुनू दो जिलों तक ही सीमित है भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज कछवाह कहलाये महाराजा कुश के वंशजों की एक शाखा अयोध्या से चल कर साकेत आयी, साकेत से रोहतास गढ़ और रोहताश से मध्य प्रदेश के उतरी भाग में निषद देश की राजधानी पदमावती आये रोहतास गढ़ का एक राजकुमार तोरनमार मध्य प्रदेश आकर वाहन के राजा गौपाल का सेनापति बना और उसने नागवंशी राजा देवनाग को पराजित कर राज्य पर अधिकार कर लिया और सिहोनियाँ को अपनी राजधानी बनाया कछवाहों के इसी वंश में सुरजपाल नाम का एक राजा हुवा जिसने ग्वालपाल नामक एक महात्मा के आदेश पर उन्ही नाम पर गोपाचल पर्वत पर ग्वालियर दुर्ग की नीवं डाली महात्मा ने राजा को वरदान दिया था कि जब तक तेरे वंशज अपने नाम के आगे पाल शब्द लगाते रहेंगे यहाँ से उनका राज्य नष्ट नहीं होगा सुरजपाल से 84 पीढ़ी बाद राजा नल हुवा जिसने नलपुर नामक नगर बसाया और नरवर के प्रशिध दुर्ग का निर्माण कराया नरवर में नल का पुत्र ढोला (सल्ह्कुमार) हुवा


जो राजस्थान में प्रचलित ढोला मारू के प्रेमाख्यान का प्रशिध नायक है उसका विवाह पुन्गल कि राजकुमारी मार्वणी के साथ हुवा था, ढोला के पुत्र लक्ष्मण हुवा, लक्ष्मण का पुत्र भानु और भानु के परमप्रतापी महाराजाधिराज बज्र्दामा हुवा जिसने खोई हुई कछवाह राज्यलक्ष्मी का पुनः उद्धारकर ग्वालियर दुर्ग प्रतिहारों से पुनः जित लिया बज्र्दामा के पुत्र मंगल राज हुवा जिसने पंजाब के मैदान में महमूद गजनवी के विरुद्ध उतरी भारत के राजाओं के संघ के साथ युद्ध कर अपनी वीरता प्रदर्शित की थी मंगल राज दो पुत्र किर्तिराज व सुमित्र हुए,किर्तिराज को ग्वालियर व सुमित्र को नरवर का राज्य मिला सुमित्र से कुछ पीढ़ी बाद सोढ्देव का पुत्र दुल्हेराय हुवा जिनका विवाह dhundhad के मौरां के चौहान राजा की पुत्री से हुवा था

दौसा पर अधिकार करने के बाद दुल्हेराय ने मांची,bhandarej खोह और झोट्वाडा पर विजय पाकर सर्वप्रथम इस प्रदेश में कछवाह राज्य की नीवं डाली मांची में इन्होने अपनी कुलदेवी जमवाय माता का मंदिर बनवाया वि.सं. 1093 में दुल्हेराय का देहांत हुवा दुल्हेराय के पुत्र काकिलदेव पिता के उतराधिकारी हुए जिन्होंने आमेर के सुसावत जाति के मीणों का पराभव कर आमेर जीत लिया और अपनी राजधानी मांची से आमेर ले आये


काकिलदेव के बाद हणुदेव व जान्हड़देव आमेर के राजा बने जान्हड़देव के पुत्र पजवनराय हुए जो महँ योधा व सम्राट प्रथ्वीराज के सम्बन्धी व सेनापति थे संयोगिता हरण के समय प्रथ्विराज का पीछा करती कन्नोज की विशाल सेना को रोकते हुए पज्वन राय जी ने वीर गति प्राप्त की थी आमेर नरेश पज्वन राय जी के बाद लगभग दो सो वर्षों बाद उनके वंशजों में वि.सं. 1423 में राजा उदयकरण आमेर के राजा बने,राजा उदयकरण के पुत्रो से कछवाहों की शेखावत, नरुका व राजावत नामक शाखाओं का निकास हुवा उदयकरण जी के तीसरे पुत्र बालाजी जिन्हें बरवाडा की 12 गावों की जागीर मिली शेखावतों के आदि पुरुष थे बालाजी के पुत्र मोकलजी हुए और मोकलजी के पुत्र महान योधा शेखावाटी व शेखावत वंश के प्रवर्तक महाराव शेखाजी का जनम वि.सं. 1490 में हुवा वि. सं. 1502 में मोकलजी के निधन के बाद राव शेखाजी बरवाडा व नान के 24 गावों के स्वामी बने राव शेखाजी ने अपने साहस वीरता व सेनिक संगठन से अपने आस पास के गावों पर धावे मारकर अपने छोटे से राज्य को 360 गावों के राज्य में बदल दिया राव शेखाजी ने नान के पास अमरसर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया और शिखर गढ़ का निर्माण किया राव शेखाजी के वंशज उनके नाम पर शेखावत कहलाये


जिनमे अनेकानेक वीर योधा,कला प्रेमी व स्वतंत्रता सेनानी हुए शेखावत वंश जहाँ राजा रायसल जी,राव शिव सिंह जी, शार्दुल सिंह जी, भोजराज जी,सुजान सिंह आदि वीरों ने स्वतंत्र शेखावत राज्यों की स्थापना की वहीं बठोथ, पटोदा के ठाकुर डूंगर सिंह, जवाहर सिंह शेखावत ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चालू कर शेखावाटी में आजादी की लड़ाई का बिगुल बजा दिया था शेखावत वंश के ही श्री भैरों सिंह जी भारत के उप राष्ट्रपति बने |


शेखावत वंश की शाखाएँ


* टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍- शेखा जी के ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा जी के वंशज टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍ कहलाये !खोह,पिपराली,गुंगारा आदि इनके ठिकाने थे जिनके लिए यह दोहा प्रशिध है

खोह खंडेला सास्सी गुन्गारो ग्वालेर !

अलखा जी के राज में पिपराली आमेर !!

टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍ शेखावटी में त्यावली,तिहाया,ठेडी,मकरवासी,बारवा ,खंदेलसर,बाजोर व चुरू जिले में जसरासर,पोटी,इन्द्रपुरा,खारिया,बड्वासी,बिपर आदि गावों में निवास करते है !


* रतनावत शेखावत -महाराव शेखाजी के दुसरे पुत्र रतना जी के वंशज रतनावत शेखावत कहलाये इनका स्वामित्व बैराठ के पास प्रागपुर व पावठा पर था !हरियाणा के सतनाली के पास का इलाका रतनावातों का चालीसा कहा जाता है

*मिलकपुरिया शेखावत -शेखा जी के पुत्र आभाजी,पुरन्जी,अचलजी के वंशज ग्राम मिलकपुर में रहने के कारण मिलकपुरिया शेखावत कहलाये इनके गावं बाढा की ढाणी, पलथाना ,सिश्याँ,देव गावं,दोरादास,कोलिडा,नारी,व श्री गंगानगर के पास मेघसर है !


* खेज्डोलिया शेखावत -शेखा जी के पुत्र रिदमल जी वंशज खेजडोली गावं में बसने के कारण खेज्डोलिया शेखावत कहलाये !आलसर,भोजासर छोटा,भूमा छोटा,बेरी,पबाना,किरडोली,बिरमी,रोलसाहब्सर,गोविन्दपुरा,रोरू बड़ी,जोख,धोद,रोयल आदि इनके गावं है !

*बाघावत शेखावत – शेखाजी के पुत्र भारमल जी के बड़े पुत्र बाघा जी वंशज बाघावत शेखावत कहलाते है ! इनके गावं जेई पहाड़ी,ढाकास,सेनसर,गरडवा,बिजोली,राजपर,प्रिथिसर,खंडवा,रोल आदि है !


*सातलपोता शेखावत -शेखाजी के पुत्र कुम्भाजी के वंशज सातलपोता शेखावत कहलाते है !


*रायमलोत शेखावत -शेखाजी के सबसे छोटे पुत्र रायमल जी के वंशज रायमलोत शेखावत कहलाते है

इनकी भी कई शाखाएं व प्रशाखाएँ है जो इस प्रकार है !

-तेजसी के शेखावत -रायमल जी पुत्र तेज सिंह के वंशज तेजसी के शेखावत कहलाते है ये अलवर

जिले के नारायणपुर,गाड़ी मामुर और बान्सुर के परगने में के और गावौं में आबाद है !


-सहसमल्जी का शेखावत — रायमल जी के पुत्र सहसमल जी के वंशज सहसमल जी का

शेखावत कहलाते है !इनकी जागीर में सांईवाड़ थी !

-जगमाल जी का शेखावत -जगमाल जी रायमलोत के वंशज जगमालजी का शेखावत कहलाते

है !इनकी १२ गावों की जागीर हमीरपुर थी जहाँ ये आबाद है


-सुजावत शेखावत -सूजा रायमलोत के पुत्र सुजावत शेखावत कहलाये !सुजाजी रायमल जी के

ज्यैष्ठ पुत्र थे जो अमरसर के राजा बने !

-लुनावत शेखावत :-लुन्करण जी सुजावत के वंशज लुन्करण जी का शेखावत कहलाते है इन्हें लुनावत शेखावत भी कहते है,इनकी भी कई शाखाएं है !

उग्रसेन जी का शेखावत ,अचल्दास का शेखावत,सावलदास जी का शेखावत,मनोहर दासोत शेखावत आदि !


-लुनावत शेखावत :-लुन्करण जी सुजावत के वंशज लुन्करण जी का शेखावत कहलाते है इन्हें लुनावत शेखावत भी कहते है,इनकी भी कई शाखाएं है !

उग्रसेन जी का शेखावत ,अचल्दास का शेखावत,सावलदास जी का शेखावत,मनोहर दासोत शेखावत आदि !


रायसलोत शेखावत :- लाम्याँ की छोटीसी जागीर जागीर से खंडेला व रेवासा का स्वतंत्र राज्य

स्थापित करने वाले राजा रायसल दरबारी के वंशज रायसलोत शेखावत कहलाये !राजा रायसल के १२

पुत्रों में से सात प्रशाखाओं का विकास हुवा जो इस प्रकार है !

A- लाड्खानी :- राजा रायसल जी के जेस्ठ पुत्र लाल सिंह जी के वंशज लाड्खानी कहलाते है

दान्तारामगढ़ के पास ये कई गावों में आबाद है यह क्षेत्र माधो मंडल के नाम से भी प्रशिध है

पूर्व उप राष्ट्रपति श्री भैरों सिंह जी इसी वंश से है !

B- रावजी का शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र तिर्मल जी के वंशज रावजी का शेखावत कहलाते है !

इनका राज्य सीकर,फतेहपुर,लछमनगढ़ आदि पर था !

C- ताजखानी शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र तेजसिंह के वंशज कहलाते है इनके गावं चावंङिया,

भोदेसर ,छाजुसर आदि है

D. परसरामजी का शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र परसरामजी के वंशज परसरामजी का शेखावत कहलाते है !

E. हरिरामजी का शेखावत :- हरिरामजी रायसलोत के वंशज हरिरामजी का शेखावत कहलाये !


F. गिरधर जी का शेखावत :- राजा गिरधर दास राजा रायसलजी के बाद खंडेला के राजा बने

इनके वंशज गिरधर जी का शेखावत कहलाये ,जागीर समाप्ति से पहले खंडेला,रानोली,खूड,दांता आदि ठिकाने इनके आधीन थे !

G. भोजराज जी का शेखावत :- राजा रायसल के पुत्र और उदयपुरवाटी के स्वामी भोजराज के वंशज भोजराज जी का शेखावत कहलाते है ये भी दो उपशाखाओं के नाम से जाने जाते है,

१-शार्दुल सिंह का शेखावत ,२-सलेदी सिंह का शेखावत

*गोपाल जी का शेखावत – गोपालजी सुजावत के वंशज गोपालजी का शेखावत कहलाते है

* भेरू जी का शेखावत – भेरू जी सुजावत के वंशज भेरू जी का शेखावत कहलाते है

* चांदापोता शेखावत – चांदाजी सुजावत के वंशज के वंशज चांदापोता शेखावत कहलाये


 


भाटी वंश का इतिहास


 


भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक का सम्पूर्ण वर्णन विस्तार से

वंश परिचय :-

चंद्र:- सर्वप्रथम इस बिंदु पर विचार किया जाना आवश्यक हे की भाटीयों की उत्पत्ति केसे हुयी ? और प्राचीन श्रोतों पर द्रष्टि डालने से ज्ञात होता हे की भाटी चंद्रवंशी है | यह तथ्य प्रमाणों से भी परिपुष्ट होता हे इसमें कोई विवाद भी नहीं हे और न किसी कल्पना का हि सहारा लिया गया है | कहने का तात्पर्य यह हे की दुसरे कुछ राजवंशो की उत्पत्ति अग्नि से मानकर उन्हें अग्निवंशी होना स्वीकार किया हे | सूर्यवंशी राठोड़ों के लिए यह लिखा मिलता हे की राठ फाड़ कर बालक को निकालने के कारन राठोड़ कहलाये | ऐसी किवदंतियों से भाटी राजवंश सर्वथा दूर है |

श्रीमदभगवत पुराण में लिखा हे चंद्रमा का जन्म अत्री ऋषि की द्रष्टि के प्रभाव से हुआ था | ब्रह्माजी ने उसे ओषधियों और नक्षत्रों का अधिपति बनाया | प्रतापी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया और तीनो लोको पर विजयी प्राप्त की उसने बलपूर्वक ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण किया जिसकी कोख से बुद्धिमान ‘बुध ‘ का जन्म हुआ | इसी के वंश में यदु हुआ जिसके वंशज यादव कहलाये | आगे चलकर इसी वंश में राजा भाटी का जन्म हुआ | इस प्रकार चद्रमा के वंशज होने के कारन भाटी चंद्रवंशी कहलाये |


कुल परम्परा :-

यदु :- भाटी यदुवंशी है | पुराणों के अनुसार यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है | इसलिए इस वंश में भगवान् श्रीकृष्णा ने जन्म लिया तथा और भी अनेक प्रख्यात नृप इस वंश में हुए |


३.कुलदेवता :-

लक्ष्मीनाथजी :- राजपूतों के अलग -अलग कुलदेवता रहे है | भाटियों ने लक्ष्मीनाथ को अपना कुलदेवता माना है |


४. कुलदेवी :-

स्वांगीयांजी :- भाटियों की कुलदेवी स्वांगयांजी ( आवड़जी ) है | उन्ही के आशीर्वाद और क्रपा से भाटियों को निरंतर सफलता मिली और घोर संघर्ष व् विपदाओं के बावजूद भी उन्हें कभी साहस नहीं खोया | उनका आत्मविश्वास बनाये रखने में देवी -शक्ति ने सहयोग दिया |


५. इष्टदेव


श्रीकृष्णा :- भाटियों के इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णा है | वे उनकी आराधना और पूजा करते रहे है | श्रीकृष्णा ने गीता के माध्यम से उपदेश देकर जनता का कल्याण किया था | महाभारत के युद्ध में उन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कोरवों को परास्त किया | इतना हि नहीं ,उन्होंने बाणासुर के पक्षधर शिवजी को परास्त कर अपनी लीला व् शक्ति का परिचय दीया | ऐसी मान्यता है की श्रीकृष्णा ने इष्ट रखने वाले भाटी को सदा सफलता मिलती है और उसका आत्मविश्वास कभी नहीं टूटता है |


६.वेद :-

यजुर्वेद :- वेद संख्या में चार है – ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद ,और अर्थवेद | इनमे प्रत्येक में चार भाग है – संहिता ,ब्राहण, आरण्यक और उपनिषद | संहिता में देवताओं की स्तुति के मन्त्र दिए गए हे तथा ;ब्राहण ‘ में ग्रंथो में मंत्रो की व्याख्या की गयी है | और उपनिषदों में दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन मिलता है | इनके रचयिता गृत्समद ,विश्वामित्र ,अत्री और वामदेव ऋषि थे | यह सम्पूर्ण साहित्य हजारों वर्षों तक गुरु-शिष्यपरम्परा द्वारा मौखिक रूप से ऐक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता रहा | बुद्ध काल में इसके लेखन के संकेत मिलते है परन्तु वेदों से हमें इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं मिलती है | इसके बाद लिखे गए पुराण हमें प्राचीन इतिहास का बोध कराते है | भाटियों ने यजुर्वेद को मान्यता दी है | स्वामी दयानंद सरस्वती यजुर्वेद का भाष्य करते हुए लिखते है ” मनुष्यों ,सब जगत की उत्पत्ति करने वाला ,सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त सब सुखों के देने और सब विद्या को प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है |…………. लोगो को चाहिए की अच्छे अच्छे कर्मों से प्रजा की रक्षा तथा उतम गुणों से पुत्रादि की सिक्षा सदेव करें की जिससे प्रबल रोग ,विध्न और चोरों का आभाव होकर प्रजा व् पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हो | यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है | इश्वर आज्ञा देता है की सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विध्या और धर्म के उपदेश से ओरों को भी दुष्टता आदी अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिए | इस प्रकार यजुर्वेद ज्ञान का भंडार है | इसके चालीस अध्याय में १९७५ मंत्र है


७.गोत्र :-

अत्री :- कुछ लोग गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से मानने की भूल करते है | वस्तुत गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से नहीं हे बल्कि ब्राहण से है जो वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कराता था | विवाह ,हवन इत्यादि सुभ कार्य के समय अग्नि की स्तुति करने वाला ब्राहण अपने पूर्व पुरुष को याद करता है इसलिए वह हवन में आसीन व्यक्ति को | वेड के सूक्तों से जिन्होंने आपकी स्तुति की उनका में वंशज हूँ | यदुवंशियों के लिए अत्री ऋषि ने वेदों की रचना की थी | इसलिए इनका गोत्र ” अत्री ” कहलाया |


८.छत्र :-

मेघाडम्बर :- श्री कृष्णा का विवाह कुनणपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुकमणी के साथ हुआ | श्रीकृष्ण जब कुनणपुर गए तब उनका सत्कार नहीं होने से वे कृतकैथ के घर रुके | उस समय इंद्र ने लवाजमा भेजा | जरासंध के अलावा सभी राजाओं ने नजराना किया | श्रीकृषण ने लवाजमा की सभी वस्तुएं पुनः लौटा दी परन्तु मेघाडम्बर छत्र रख लिया | श्रीकृष्ण ने कहा की जब तक मेघाडम्बर रहेगा यदुवंशी राजा बने रहेंगे | अब यह मेघाडम्बर छत्र जैसलमेर के राजघराने की सोभा बढ़ा रहा है |


9.ध्वज :-

भगवा पीला रंग :- पीला रंग समृदधि का सूचक रहा है और भगवा रंग पवित्र माना गया है | इसके अतिरिक्त पीले रंग का सूत्र कृष्ण भगवान के पीताम्बर से और भगवा रंग नाथों के प्रती आस्था से जुड़ा हुआ है | इसलिए भाटी वंश के ध्वज में पीले और भगवा रंग को स्थान दिया गया है |


१०.ढोल :-

भंवर :- सर्वप्रथम महादेवजी ने नृत्य के समय 14 बार ढोल बजा कर 14 महेश्वर सूत्रों का निर्माण किया था | ढोल को सब वाध्यों का शिरोमणि मानते हुए use पूजते आये है | महाभारत के समय भी ढोल का विशेष महत्व रहा है | ढोल का प्रयोग ऐक और जहाँ युद्ध के समय योद्धाओं को एकत्र करने के लिए किया जाता था वही दुसरी और विवाह इत्यादि मांगलिक अवसरों पर भी इसे बजाया जाता है | भाटियों ने अपने ढोल का नाम भंवर रखा |


११. नक्कारा :-

अग्नजोत ( अगजीत)- नक्कारा अथवा नगारा (नगाड़ा ) ढोल का हि ऐक रूप है | युद्ध के समय ढोल घोड़े पर नहीं रखा जा सकता था इसलिए इसे दो हिस्सो में विभक्त कर नगारे का स्वरूप दिया गया था | नगारा बजाकर युद्ध का श्रीगणेश किया जाता था | विशेष पराक्रम दिखाने पर राज्य की और से ठिकानेदारों को नगारा ,ढोल ,तलवार और घोडा आदी दिए जाते थे | ऐसे ठिकाने ‘ नगारबंद’ ठिकाने कहलाते थे | घोड़े पर कसे जाने वाले नगारे को ‘अस्पी’ , ऊंट पर रखे जाने वाले नगारे को सुतरी’ और हाथी पर रखे जाने नगारे को ‘ रणजीत ‘ कहा गया है |”

भाटियों ने अपने नगारे का नाम अग्नजोत रखा है | अर्थात ऐसा चमत्कारी नक्कारा जिसके बजने से अग्नि प्रज्वलित हो जाय | अग्नि से जहाँ ऐक और प्रकाश फैलता है और ऊर्जा मिलती है वही अग्नि दूसरी और शत्रुओं का विनाश भी करती है | कुछ रावों की बहियों में इसका नाम ” अगजीत ” मिलता है , जिसका अर्थ है पापों पर विजय पाने वाला ,नगारा


१२.गुरु:-

रतननाथ :- नाथ सम्प्रदाय का सूत्र भाटी राजवंश के साथ जुड़ा हुआ है | ऐक और नाथ योगियों के आशीर्वाद से भाटियों का कल्याण हुआ तो दूसरी और भाटी राजवंश का पश्रय मिलने पर नाथ संप्रदाय की विकासयात्रा को विशेष बल मिला | 9वीं शताब्दी के मध्य योगी रतननाथ को देरावर के शासक देवराज भाटी को यह आशीर्वाद दिया था की भाटी शासकों का इस क्षेत्र में चिरस्थायी राज्य रहेगा | इसके बारे में यह कथा प्रचलित हे की रतननाथ ने ऐक चमत्कारी रस्कुप्पी वरीहायियों के यहाँ रखी | वरीहायियो के जमाई देवराज भाटी ने उस कुप्पी को अपने कब्जे में कर उसके चमत्कार से गढ़ का निर्माण कराया | रतननाथ को जब इस बात का पता चला तो वह देवराज के पास गए और उन्होंने उस कुप्पी के बारे में पूछताछ की | तब देवराज ने सारी बतला दी | इस पर रतननाथ बहुत खुश हुए और कहा की ” टू हमारा नाम और सिक्का आपने मस्तक पर धारण कर | तेरा बल कीर्ति दोनों बढेगी और तेरे वंशजों का यहाँ चिरस्थायी राज्य रहेगा | राजगद्दी पर आसीन होते समय तू रावल की पदवी और जोगी का भगवा ‘ भेष ‘ अवश्य धारण करना |”

भाटी शासकों ने तब से रावल की उपाधि धारण की और रतननाथ को अपना गुरु मानते हुए उनके नियमों का पालन किया |


13.पुरोहित :-

पुष्करणा ब्राहण :- भाटियों के पुरोहित पुष्पकरणा ब्राहण माने गए है | पुष्कर के पीछे ये ब्राहण पुष्पकरणा कहलाये | इनका बाहुल्य ,जोधपुर और बीकानेर में रहा है | धार्मिक अनुष्ठानो को किर्यान्वित कराने में इनका महतवपूर्ण योगदान रहता आया है |


14 पोळपात

रतनू चारण – भाटी विजयराज चुंडाला जब वराहियों के हाथ से मारा गया तो उस समय उसका प्रोहित लूणा उसके कंवर देवराज के प्राण बचाने में सफल हुए | कुंवर को लेकर वह पोकरण के पास अपने गाँव में जाकर रुके | वराहियों ने उसका पीछा करते हुए वहां आ धमके | उन्होंने जब बालक के बारे में पूछताछ की तो लूणा ने बताया की मेरा बेटा है | परन्तु वराहियों को विस्वाश नहीं हुआ | तब लूणा ने आपने बेटे रतनू को साथ में बिठाकर खाना खिलाया | इससे देवराज के प्राण बच गए परन्तु ब्राह्मणों ने रतनू को जातिच्युत कर दिया | इस पर वह सोरठ जाने को मजबूर हुआ | जब देवराज अपना राज्य हस्तगत करने में सफल हुआ तब उसने रतनू का पता लगाया और सोरठ से बुलाकर सम्मानित किया और अपना पोळपात बनाया | रतनू साख में डूंगरसी ,रतनू ,गोकल रतनू आदी कई प्रख्यात चारण हुए है |


15. नदी

यमुना :- भगवान् श्रीकृष्ण की राजधानी यमुना नदी किनारे पर रही ,इसी के कारन भाटी यमुना को पवित्र मानते है |


16.वृक्ष

पीपल और कदम्ब :- भगवान् श्री कृष्णा ने गीता के उपदेश में पीपल की गणना सर्वश्रेष्ठ वृक्षों में की है | वेसे पीपल के पेड़ की तरह प्रगतिशील व् विकासशील प्रवर्ती के रहे है | जहाँ तक कदम्ब का प्रश्न है , इसका सूत्र भगवान् श्री कृष्णा की क्रीड़ा स्थली यमुना नदी के किनारे कदम्ब के पेड़ो की घनी छाया में रही थी | इसके आलावा यह पेड़ हमेशा हर भरा रहता है इसलिए भाटियों ने इसे अंगीकार किया हे | वृहत्संहिता में लिखा है की कदम्ब की लकड़ी के पलंग पर शयन करना मंगलकारी होता है | चरक संहिता के अनुसार इसका फूल विषनीवारक् तथा कफ और वात को बढ़ाने वाला होता है | वस्तुतः अध्यात्मिक और संस्कृतिक उन्नयन में कदम्ब का जितना महत्व रहा है | उतना महत्व समस्त वनस्पतिजगत में अन्य वृक्ष का नहीं रहा है।।

17.राग
मांड :- जैसलमेर का क्षेत्र मांड प्रदेश के नाम से भी जाना गया है | इस क्षेत्र में विशेष राग से गीत गाये जाते है जिसे मांड -राग भी कहते है | यह मधुर राग अपने आप में अलग पहचान लिए हुए है | मूमल ,रतनराणा ,बायरीयो ,कुरंजा आदी गीत मांड राग में गाये जाने की ऐक दीर्धकालीन परम्परा रही है |

18.माला
वैजयन्ती:- भगवान् श्रीकृष्णा ने जब मुचुकंद ( इक्ष्वाकुवशी महाराजा मान्धाता का पुत्र जो गुफा में सोया हुआ था ) को दर्शन दिया , उस समय उनके रेशमी पीताम्बर धारण किया हुआ था और उनके घुटनों तक वैजयंती माला लटक रही थी | भाटियों ने इसी नाम की माला को अंगीकार किया | यह माला विजय की प्रतिक मानी जाती है |

19.विरुद
उतर भड़ किवाड़ भाटी :-सभी राजवंशो ने उल्लेखनीय कार्य सम्पादित कर अपनी विशिष्ट पहचान बनायीं और उसी के अनुरूप उन्हें विरुद प्राप्त हुआ | दुसरे शब्दों में हम कह सकते हे की ‘; विरुद ” शब्द से उनकी शोर्य -गाथा और चारित्रिक गुणों का आभास होता है | ढोली और राव भाट जब ठिकानों में उपस्थित होते है , तो वे उस वंश के पूर्वजों की वंशावली का उद्घोष करते हुए उन्हें विरुद सुनते है
भाटियों ने उतर दिशा से भारत पर आक्रमण करने वाले आततायियों का सफलतापूर्ण मुकाबला किया था , अतः वे उतर भड़ किवाड़ भाटी अर्थात उतरी भारत के रक्षक कहलाये | राष्ट्रिय भावना व् गुमेज गाथाओं से मंडित यह विरुद जैसलमेर के राज्य चिन्ह पर अंकित किया गया है

२.अभिवादन
जयश्री कृष्णा :- ऐक दुसरे से मिलते समय भाटी ” जय श्री कृष्णा ” कहकर अभिवादन करते है | पत्र लिखते वक्त भी जय श्री कृष्णा मालूम हो लिखा जाता है |

21. राजचिन्ह :- राजचिन्ह का ऐतिहासिक महत्व रहा है | प्रत्येक चिन्ह के अंकन के पीछे ऐतिहासिक घटना जुडी हुयी रहती हे | जैसलमेर के राज्यचिन्ह में ऐक ढाल पर दुर्ग की बुर्ज और ऐक योद्धा की नंगी भुजा में मुदा हुआ भाला आक्रमण करते हुए दर्शाया गया है | श्री कृष्णा के समय मगध के राजा जरासंघ के पास चमत्कारी भाला था | यादवों ने जरासंघ का गर्व तोड़ने के लिए देवी स्वांगियाजी का प्रतिक माना गया है | ढाल के दोनों हिरण दर्शाए गए है जो चंद्रमा के वाहन है | नीचे ” छ्त्राला यादवपती ” और उतर भड़ किवाड़ भाटी अंकित है | जैसलमेर -नरेशों के राजतिलक के समय याचक चारणों को छत्र का दान दिया जाता रहा है इसलिए याचक उन्हें ” छ्त्राला यादव ” कहते है | इस प्रकार राज्यचिन्ह के ये सूत्र भाटियों के गौरव और उनकी आस्थाओं के प्रतिक रहे है |

22.भट्टीक सम्वत :- भट्टीक सम्वत भाटी राजवंश की गौरव -गरिमा ,उनके दीर्धकालीन वर्चस्व और प्रतिभा का परिचयाक है | वैसे चौहान ,प्रतिहार ,पंवार ,गहलोत ,राठोड़ और कछवाह आदी राजवंशों का इतिहास भी गौरवमय रहा है परन्तु इनमे से किसी ने अपने नाम से सम्वत नहीं चलाया | भाटी राजवंश द्वारा कालगणना के लिए अलग से अपना संवत चलाना उनके वैभव का प्रतिक है | उनके अतीत की यह विशिष्ट पहचान शिलालेखों में वर्षों तक उत्कीर्ण होती रही है |
भाटियों के मूल पुरुष भाटी थे | इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करते हुए ओझा और दसरथ शर्मा ने आदी विद्वानों ने राजा भाटी द्वारा विक्रमी संवत ६८०-81 में भट्टीक संवत आरम्भ किये जाने का अनुमान लगाया है | परन्तु भाटी से लेकर १०७५ ई. के पूर्व तक प्रकाश में आये शिलालेख में भट्टीक संवत का उल्लेख नहीं है | यदि राजा भाटी इस संवत का पर्वर्तक होते तो उसके बाद के राजा आपने शिलालेखों में इसका उल्लेख जरुर करते |
भट्टीक संवत का प्राचीनतम उल्लेख देरावर के पास चत्रेल जलाशय पर लगे हुए स्तम्भ लेख में हुआ है जो भट्टीक संवत ४५२ ( १०७५ ई= वि.सं.११३२) है इसके बाद में कई शिलेखों प्रकाश में आये जिनके आधार पर कहा जा सकता है की भट्टीक सम्वत का उल्लेख करीब 250 वर्ष तक होता रहा |

खोजे गए शिलालेखों के आधार पर यह तथ्य भी उजागर हुआ हे की भट्टीक सम्वत के साथ साथ वि. सं. का प्रयोग भी वि. सं,. १४१८ से होने लगा | इसके बाद के शिलालेखों में वि. सं, संवत के साथ साथ भट्टीक संवत का भी उल्लेख कहीं कहीं पर मिलता है अब तक प्राप्त शिलालेखों में अंतिम उल्लेख वि. सं. १७५६ ( भट्टीक संवत १०७८ ) अमरसागर के शिलालेख में हुआ है | ऐसा प्रतीत होता है की परवर्ती शासकों ने भाटियों के मूल पुरुष राजा भाटी के नाम से भट्टीक संवत का आरम्भ किया गया | कालगणना के अनुसार राजा भाटी का समय वि. संवत ६८० में स्थिर कर उस समय से हि भट्टीक संवत १ का प्रारंभ माना गया है और उसकी प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए भट्टीक संवत का उल्लेख कुंवर मंगलराव और दुसज तथा परवर्ती शासकों ने शिलालेखों में करवाया | बाद में वि.सं. और भट्टीक संवत के अंतर दर्शाने के लिए दोनों संवतों का प्रयोग शिलालेखों में होने लगा |

एंथोनी ने विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर भट्टीक संवत आदी शिलालेखों कि खोज की है | उसके अनुसार अभी तक २३१ शिलालेख भट्टीक संवत के मिले है जिसमे १७३ शिलालेखों में सप्ताह का दिन ,तिथि ,नक्षत्र ,योग आदी पर्याप्त जानकारियां मिली है | भट्टीक संवत ७४० और ८९९ के शिलालेखों में सूर्य राशियों स्पष्ट रूप से देखि जा सकती है | यह तथ्य भी उजागर हुआ है की मार्गशीर्ष सुदी १ से नया वर्ष और अमावस्या के बाद नया महिना प्रारंभ होता है |
भट्टीक सम्वत का अधिकतम प्रयोग ५०२-600 अर्थात ११२४-१२२४ ई. के दोरान हुआ जिसमे 103 शिलालेख है जबकि १२२४-१३५२ ई. के मध्य केवल 66 शिलालेख प्राप्त हुए है | १२२२ से १२५० ई और ११३३४ से १३५२ के मध्य कोई शिलालेख नहीं मिलता है | जहाँ तह सप्ताह के दिनों का महत्व का प्रसन्न है ११२४- १२२२ के शिलालेखों में रविवार की आवृति बहुत अधिक है परन्तु इसके बाद गुरुवार और सोमवार का अधिक प्रयोग हुआ है | मंगलवार और शनिवार का प्रयोग न्यून है

भाटियो का राव वंश वेलियो ,सोरम घाट ,आत्रेस गोत्र ,मारधनी साखा ,सामवेद ,गुरु प्रोहित ,माग्न्यार डगा ,रतनु चारण तीन परवर ,अरनियो ,अपबनो ,अगोतरो ,मथुरा क्षेत्र ,द्वारका कुल क्षेत्र ,कदम वृक्ष ,भेरव ढोल ,गनादि गुणेश ,भगवां निशान ,भगवी गादी ,भगवी जाजम ,भगवा तम्बू ,मृगराज ,सर घोड़ों अगनजीत खांडो ,अगनजीत नगारों ,यमुना नदी ,गोरो भेरू ,पक्षी गरुड़ ,पुष्पकर्णा पुरोहित ,कुलदेवी स्वांगीयाजी ,अवतार श्री कृष्णा ,छत्र मेघाडंबर ,गुरु दुर्वासा रतननाथ ,विरूप उतर भड किवाड़ ,छ्त्राला यादव ,अभिवादन जय श्री कृष्णा ,व्रत एकादशी ।

भाटी शासक का शासन काल 5000
आजतक भारत के राजवंशो में किसी भी राजवंश का क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा हुआ है । केवल यदुवंश भाटी ही ऐसा वंश है जो 5000 साल लगातार भारत भूमि पर कही न कही शासन करते चले आ रहे है । इतने लम्बे समय में उनकी राजधानिया एंड काल इस प्रकार रहे ।
राजधानी का नाम काल
काशी 900 साल
द्वारिका 500 साल
मथुरा 1050 साल
गजनी 1500 साल
लाहोर 600 साल
हंसार 160 साल
भटनेर 80 साल
मारोट 140 साल
तनोट 40 साल
देरावर 20 साल
लुद्र्वा 180 साल
जैसलमेर 791 साल
इतिहास में 5000 साल के लम्बे समय में 49 युद्ध भारत भूमि की रक्षा के लिए शत्रुओं से लड़े गए उनका क्रमबद्ध वर्णन किया गया है । जिसमे 10 युद्ध गजनी पर हुए इस इतिहास में आदिनारायण से वर्तमान महारावल बृजराज सिंह तक ।

208 पीढियों का वर्णन है । यूनान के बादशाह सिकंदर एंड जैसलमेर के महारावल शालिवाहन 167 के बीच युद्ध हुआ जिसमे महारावल विजयी हुए । भटनेर के तीन शाके तनोट पर एक शाका जिसमे 350 क्षत्रानियो ने जोहर किया रोह्ड़ी का शाका , जैसलमेर के ढाई शाके इस प्रकार कुल साढ़े ग्यारह शाके यदुवंशी भाटियो द्वारा किये गए प्रस्तुत इतिहास में 36 वंशों के नाम यदुवंशियों की 11 साखायें भाटियो की 150 साखायें एंड उनकी जागीरे भाटियो द्वारा कला साहित्य संगीत चित्रकला स्थापत्य कला जैसलमेर की स्थापना जैसलमेर का राज्य चिन्ह भाटी मुद्रा टोल जैसलमेर के दर्शनीय स्थान सामान्य ज्ञान पटुओ का इतिहास राठौर एंड परमारों की ख्याति का भी वर्णन है ।

गौतम राजपूत

गौतम राजपूतों की शौर्य गाथा

कण-कण में इतिहास समाया है, पर बदले समय के कारण इतिहास में दर्ज सैकड़ों गौरव गाथाओं पर धूल जम चुकी है। इतिहास के पन्नों पर जमा धूल को साफ कर अतीत में झांका जाये, तो पूर्वजों की शौर्य गाथाओं को जान कर आज भी सीना चौड़ा हो जाता है। गौतम राजपूतों की ऐसी ही एक गौरव गाथा इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों की तरह चमक रही है, जो होली के अवसर पर अनायास ही याद आ जाती है।

चौथी या पांचवी ईसवी से पहले बदायूं जनपद में गौतम राजपूत नहीं थे। कहा जाता है कि उस दौरान यहां हूणों का शासन था। उस समय राजस्थान में स्थित अलवर के राजा भवानी सिंह जी अपने परिवार के साथ भारत यात्रा पर निकले हुए थे। बताया जाता है कि उस समय के न्योधना व आज के कस्बा इस्लामनगर के पास उस दौरान विशाल वन था। इस वन से राजा भवानी सिंह जी का काफिला निकल रहा था, तभी उनके रथ का पहिया मिट्टी में धंस गया। सेवकों ने रथ निकाला, तब तक शाम हो गयी। इस लिए राजा भवानी सिंह जी ने वन में ही पड़ाव डालने के साथ काफिले को आराम करने का आदेश दे दिया। रात में बीच वन में चहल-पहल और रोशनी देख कर आसपास के क्षेत्र की जनता उत्सुकता के चलते वन में देखने पहुंच गयी, तो जनता को पता चला कि यहां राजा का डेरा पड़ा है।

क्षेत्रीय जनता ने राजा भवानी सिंह जी को अवगत बताया कि इस क्षेत्र में हूणों का शासन है, जो बहुत अत्याचार करते हैं। जनता ने अत्याचार की दास्तां राजा को विस्तार पूर्वक बताई, तो जनता की परेशानी सुनकर राजा ने यात्रा पर आगे जाने का इरादा त्याग दिया और हूणों की शक्ति का आंकलन करने के लिए अपने गुप्तचर क्षेत्र में दौड़ा दिये। राजा भवानी सिंह जी ने रणनीति बना कर होली के अवसर पर रंग वाले दिन आक्रमण कर दिया। हूणों का इस्लामनगर (न्योधना) में किला था, जहां से उनका शासन संचालित होता था, उस भवन में आज पुलिस थाना चल रहा है। कहा जाता है कि कुछ सैनिकों के साथ उनकी पुत्री पड़ाव वाले स्थान पर ही रही और अलग-अलग दिशाओं में राजा ने सेना की टुकडिय़ों के साथ पांच पुत्रों को आक्रमण करने लिये भेजा, साथ ही उन्होंने स्वयं सैनिकों के साथ इस्लामनगर (न्योधना) पर आक्रमण किया।

हूणों के साथ भयंकर युद्ध हुआ और अंत में इस्लामनगर (न्योधना) क्षेत्र में गौतम राजपूतों का राज कायम हो गया, लेकिन एक दु:खद घटना भी घटी। राजा भवानी सिंह जी और उनके बेटे युद्ध कर रहे थे, तभी कुछ हूणों ने डेरे पर हमला बोल दिया, लेकिन मौके पर मौजूद सैनिकों के साथ राजकुमारी ने हूणों के साथ जमकर युद्ध किया और सभी हूणों को मार दिया। कहा जाता है युद्ध में राजकुमारी गंभीर रूप से घायल हो गयीं, जिससे उन्हें बचाया नहीं जा सका। गांव भवानी पुर में राजकुमारी की याद में मंदिर बना हुआ है, जिसे आज सती माता के मंदिर के नाम से जाना जाता है।

गौतम राजपूतों का शासन स्थापित हो जाने के बाद शासक परिवर्तित होते रहे और बाद में गुलामी के बाद प्रजातंत्र तक का सफर तय हुआ, लेकिन इस क्षेत्र में गौतम राजपूतों का दब-दबा आज तक कायम है। इस्लामनगर क्षेत्र में राजनीति की जमीन आज भी गौतम राजपूतों के इशारे पर ही तैयार होती है। इस ब्लाक क्षेत्र में आजादी से अब तक अधिकतम समय गौतम वंशीय ही प्रमुख रहा है,

लश्करपुर ओइया रियासत और शहीद ठाकुर मोती सिंह———–
बदायूं क्षेत्र में लश्करपुर ओइया गौतम राजपूतो की रियासत थी।
म वंशीय राजपूतों के साथ पूरे क्षेत्र की जनता के बीच स्वर्गीय ठाकुर मोती सिंह का नाम आज भी वंदनीय है, क्योंकि इन्होंने अपने जीवन काल में अंग्रेजों को क्षेत्र में घुसने भी नहीं दिया, पर षड्यंत्र के तहत खत्री वंश के एक स्वयं-भू राजा ने अंग्रेजों से मिल कर फांसी लगवा दी। लश्करपुर ओईया में आज भी उनकी समाधि बनी हुई है, जहां प्रतिदिन सैकड़ों लोग पूजा-अर्चना करते हैं। मुरादाबाद लोकसभा क्षेत्र से सांसद रह चुके चन्द्रविजय सिंह की जड़ें उसी खत्री परिवार से जुड़ी हुई हैंकहा जाता है कि लश्करपुर ओईया के राजा के संतान नहीं थी, जिससे उन्होंने खत्री जाति के एक बच्चे को गोद ले लिया था, लेकिन उस खत्री जाति के बच्चे को किसी ने राजा वाला सम्मान नहीं दिया, जिससे वह स्वयं को अपमानित महसूस करता था, तभी ठा. मोती सिंह से ईष्‍या करता था। खत्री परिवार के गोद लिये हुए स्वयं-भू राजा प्रद्युम्र के भी एक मात्र इन्द्रमोहनी नाम की पुत्री ही जन्मी, जिसका विवाह मुरादाबाद जनपद के राजा का सहसपुर कस्बे में हुआ। इन्द्रमोहनी प्रदेश सरकार में विद्युत मंत्री रह चुकी हैं और चन्द्रविजय सिंह की मां हैं। स्वयं-भू राजा प्रद्युम्र के निधन के बाद लश्करपुर ओईया की संपत्ति इन्द्रामोहनी को ही मिली, लेकिन क्षेत्र में सम्मान न मिलने के कारण लश्करपुर ओईया की समस्त संपत्ति बेच दी, जिससे अब कुछ अवशेष ही बचे हैं।
गौतम राजपूत

गौतम राजपूत
वंश–सूर्यवंश,इच्छवाकु,शाक्य
गोत्र- गौतम
प्रचर पाँच – गौतम , आग्डिरस , अप्सार,बार्हस्पत्य, ध्रुव
कुलदेवी- चामुण्ङा माता,बन्दी माता,दुर्गा माता
देवता – महादेव योगेश्वर,श्रीरामचन्द्र जी
वेद – यजुर्वेद
शाखा- वाजसनेयी
प्रसिद्ध महापुरुष–गौतम बुद्ध
सुत्र- पारस्करगृहासूत्र

गौतम वंश का महामंत्र–
रेणुका: सूकरह काशी काल बटेश्वर:।
कालिंजर महाकाय अश्वबलांगनव मुक्तद:॥

प्राचीन राज्य–कपिलवस्तु, अर्गल, मेहनगर, कोरांव,बारां(उन्नाव),लशकरपुर ओईया(बदायूं)
निवास—अवध,रुहेलखण्ड,पूर्वांचल,बिहार,मध्य प्रदेश
शाखाएं–कंडवार, गौनिहां, रावत,अंटैया,गौतमिया आदि
प्राचीन शाखाएं–मोरी(मौर्य),परमार(सम्भवत,शोध जारी)
अनुमानित जनसंख्या–1891 की जनगणना में यूपी में कुल 51970 गौतम राजपूत थे अब करीब दो से ढाई लाख होंगे,इसमें बिहार और मध्य प्रदेश के गौतम राजपूतो की संख्या भी जोड़ ले तो करीब 350000 गौतम राजपूतो की संख्या देश भर में होगी।।
गौतम सूर्यंवंशी राजपूत हैं ये अयोधया के सूर्यवंश से अलग हुई शाखा है इन्हें पहले शाक्य वंश भी कहा जाता है।
गौतम ऋषि द्वारा दीक्षित होने के कारण इनका ऋषि गोत्र गौतम हुआ जिसके बाद ये गौतम क्षत्रिय कहलाए जाने लगे।
वंश भास्कर के अनुसार—भगवान राम के किसी वंशज ने प्राचीन काल मे अपना राज्य नेपाल मे स्थापित किया ।
इसी वंश मे महाराणा शाक्य सिंह हुए जिनके नाम से यह शाक्य वंश कहा जाने लगा। इसकी राजधानी कपिलवस्तु ( गोरखपुर ) थी। इसी वंश में आगे चलकर शुध्दोधन हुये जिनकी बडी रानी से सिद्धार्थ उत्पन्न हुये जो ” गौतम ” नाम से सुविख्यात हुये । जो संसार से विरक्त होकर प्रभु भक्ति में लीन हो गये । संसार से विरक्त होने से पहले इनकी रानी यशोधरा को पुत्र (राहुल ) उत्पन्न हो चुका था। इन्हीं गौतम बुद्ध के वंशज ” गौतम ” राजपूत कहलाते हैं । इस वंश में राव, रावत, राणा, राजा आदि पदवी प्राप्त घराने हैं ।
( अश्वघोष के अनुसार—–गौतम गोत्री कपिल नामक तपस्वी मुनि अपने माहात्म्य के कारण दीर्घतपस के समान और अपनी बुद्धि के कारण काव्य (शुक्र) तथा अंगिरस के समान था| उसका आश्रम हिमालय के पार्श्व में था| कई इक्ष्वाकु-वंशी राजपुत्र मातृद्वेष के कारण और अपने पिता के सत्य की रक्षा के निमित्त राजलक्ष्मी का परित्याग कर उस आश्रम में जा रहे| कपिल उनका उपाध्याय (गुरु) हुआ, जिससे वे राजकुमार, जो पहले कौत्स-गोत्री थे, अब अपने गुरु के गोत्र के अनुसार गौतम-गोत्री कहलाये| एक ही पिता के पुत्र भिन्न-भिन्न गुरुओं के कारण भिन्न भिन्न गोत्र के हो जाते है, जैसे कि राम (बलराम) का गोत्र “गाग्र्य” और वासुभद्र (कृष्ण) का “गौतम” हुआ| जिस आश्रम में उन राजपुत्रों ने निवास किया, वह “शाक” नामक वृक्षों से आच्छादित होने के कारण वे इक्ष्वाकुवंशी “शाक्य” नाम से प्रसिद्ध हुये| गौतम गोत्री कपिल ने अपने वंश की प्रथा के अनुसार उन राजपुत्रों के संस्कार किये और उक्त मुनि तथा उन क्षत्रिय-पुंगव राजपुत्रों के कारण उस आश्रम ने एक साथ “ब्रह्मक्षत्र” की शोभा धारण की)

एक अन्य मत के अनुसार श्रृंगी ऋषि का विवाह कन्नौज के गहरवार राजा की पुत्री से हुआ,उसके
दो पुत्र हुए,एक ने अर्गल के गौतम वंश की नीव रखी और दुसरे पदम से सेंगर वंश चला,इस मत के अविष्कारक ने लिखा कि 135 पीढ़ियों तक सेंगर वंश पहले सीलोन (लंका) फिर मालवा होते हुए ग्यारहवी सदी में जालौन में कनार में स्थापित हुए. किन्तु यह मत बिलकुल गलत है,क्योंकि पहले तो अर्गल का गौतम वंश,सूर्यवंशी क्षत्रिय गौतम बुध का वंशज है और दूसरी बात कि कन्नौज में गहरवार वंश का शासन ही दसवी सदी के बाद शुरू हुआ तो उससे 135 पीढ़ी पहले वहां के गहरवार राजा की पुत्री से श्रृंगी ऋषि का विवाह होना असम्भव है.
गौतम बुद्ध का जन्म भी इसी वंश में हुआ था।
शाक्य राज्य पर कोशल नरेश विभग्ग द्वारा आक्रमण कर इसे नष्ट कर दिया गया था जिसके बाद बचे हुए शाक्य गौतम क्षत्रियों द्वारा अमृतोदन के पुत्र पाण्डु के नेतृत्व में अर्गल राज्य की स्थापना की गयी।अर्गल आज के पूर्वांचल के फतेहपुर जिले में स्थित है।
प्रसिद्ध गौतम राजा अंगददेव ने अपने नाम का रिन्द नदी के किनारे “अर्गल” नाम की आबादी को आबाद करवाया और गौतम के खानदान की राजधानी स्थापित किया राजा अंगददेव. की लडकी अंगारमती राजा कर्णदेव को ब्याही थी राजा अंगददेव ने अर्गल से ३मील दक्षिण की तरफ एक किला बनवाया और इस किले का नाम “सीकरी कोट” यह किला गए में ध्वंसावशेष के रूप में आज भी विद्यमान है।
१- राजा अंगददेव
२- बलिभद्रदेव
३- राजा श्रीमानदेव
४- राजा ध्वजमान देव
५- राजा शिवमान देव :-
राजा शिवमान देव ने अर्गल से १मील दक्षिण रिन्द नदी के किनारे अर्गलेश्वर महादेव का मन्दिर बनवाया यहाँ आज भी शिवव्रत का मेला लगता है।
अर्गल राजा कलिंग देव ने रिन्द नदी के किनारे कोडे (कोरा) का किला बनवाया।13वीं शताब्दी में भरो द्वारा अर्गल का हिस्सा दबा लिया था।उस समय अर्गल राज्य में अवध क्षेत्र के कन्नौज के रायबरेली फतेहपुर बांदा के कुछ क्षेत्र आते थे। 1320 के पास अर्गल के गौतम राजा नचिकेत सिंह व बैस ठाकुर अभय सिंह व निर्भय सिंह का जिक्र आता है। उस समय बैसवारा में सम्राट हर्षवर्धन के वंशज बैस ठाकुरों का उदय हो रहा था। उनके नाम पर ही इस क्षेत्र को बैसवारा क्षेत्र कहा गया। एक युद्ध में नचिकेत सिंह और उनकी पत्नी को गंगा स्नान के समय विरोधी मुस्लिम सेना ने घेर लिया तो निर्भय व अभय सिंह ने उन्हें बचाया था। इसमें निर्भय सिंह को वीर गति प्राप्त हुई थी। राजा ने अभय सिंह की बहादुरी से खुश होकर उन्हें अपनी पुत्री ब्याह दी और दहेज में उसे डौडिया खेड़ा का क्षेत्र सहित रायबरेली के 24 परगना (उस समय यह रायबरेली में आता था) और फतेहपुर का आशा खेड़ा का राजा बनाया था। 1323 ईसवी में अभय सिंह बैस यहां के राजा हुए थे। यह पूरा क्षेत्र भरों से खाली कराने में अभय सिंह की दो पीढिया लगीं। इसके बाद आगे की पीढ़ी में मर्दन सिंह का जिक्र आता है।
अर्गल के गौतम राजा द्वारा चौसा के युद्ध में हुमायूँ को हराया गया जिससे शेरशाह सूरी को मुगलो को अपदस्थ कर भारत का सम्राट बनने में सहायता मिली।जब मुगलों का भारत में दुबारा अधिपत्य हुआ तो उन्होंने बदले की भावना से अर्गल राज्य पर हमला किया और यह राज्य नष्ट हो गया।
फिर भी बस्ती गोरखपुर क्षेत्र में गौतम राजपूतो की प्रभुसत्ता बनी रही और ब्रिटिश काल तक गौतम राजपूतो के एक जमीदार परिवार शिवराम सिंह “लाला” को अर्गल नरेश की उपाधि बनी रही।अर्गल के गौतम राजपूतो की एक शाखा पूर्वांचल गयी वहां मेहनगर के राजा विक्रमजीत गौतम ने किसी मुस्लिम स्त्री से विवाह कर लिया जिससे उन्हें राजपूत समाज से बाहर कर दिया गया।
विक्रमजीत की मुस्लिम पत्नी के पुत्र ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया जिसका नाम आजम खान रखा गया।इसी आजम खान ने आजमगढ़ राज्य की नीव रखी।बस्ती जिले में नगर के गौतम राजा प्रताप नारायण सिंह ने 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजो के विरुद्ध क्रांति में बढ़ चढ़कर भाग लिया तथा अंग्रेजो को कई बार मात दी।लेकिन उनके कुछ दुष्ट सहयोगियों द्वारा विश्वासघात करने के कारण वो पकड़े गए तथा उन्हें अंग्रेजो द्वारा मृत्युदण्ड की सजा दी गयी।इस क्षेत्र के गौतम राजपूतों ने ओरंगजेब का भी मुकाबला किया था।
उत्तराधिकार संघर्ष में शाह शुजा भागकर फतेहपुर आया था जिसे गौतम राजपूतो ने शरण दी थी।जिसके बाद ओरंगजेब की 90000 सेना ने हमला किया जिसका 2 हजार गौतम राजपूतो द्वारा वीरता से मुकाबला किया गया।इसमें हिन्दू राजपूतो के साथ मुस्लिम गौतम ठाकुरों ने भी कन्धे से कन्धा मिलाकर जंग लड़ी।बाद में यहाँ के गौतम राजपूतो ने अंग्रेजो का भी जमकर मुकाबला किया और बगावत के कारण एक इमली के पेड़ पर 52 गौतम राजपूतो को अंग्रेजो द्वारा फांसी की सजा दी गयी।
आज गौतम राजपूत गाजीपुर, फतेहपुर , मुरादाबाद , बदायुं, कानपुर , बलिया , आजमगढ़ , फैजाबाद , बांदा, प्रतापगढ, फर्रूखाबाद, शाहाबाद, गोरखपुर , बनारस , बहराइच, जिले(उत्तर प्रदेश )
आरा, छपरा, दरभंगा(बिहार )
चन्द्रपुरा, नारायण गढ( मंदसौर), रायपुर (मध्यप्रदेश ) आदि जिलों में बासे हैं ।
“कण्ङवार” – दूधेला, पहाड़ी चक जिला छपरा बिहार में बहुसंख्या में बसे हैं ।
चन्द्रपुरा, नारायण गढ( मंदसौर) में उत्तर प्रदेश के फतेहपुर से आकर गौतम राजपूत बसे हैं ।
कुछ गौतम राजपूत पंजाब के पटियाला और हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर हमीरपुर कांगड़ा चम्बा में भी मिलते हैं
गौतम राजपूतों की एक शाखा.. गाज़ीपुर के जमानियां. करंडा बेल्ट में भी है। विधायक राजकुमार सिंह गौतम करंडा क्षेत्र के मैनपुर गांव के ही निवासी हैं जो गौतम ठाकुरों का काफी दबंग गांव है।.. बाकि गौतमों की एक पट्टी आजमगढ़ के मेंहनगर लालगंज बेल्ट में भी है।

गौतम क्षत्रिय की खापें निम्नलिखित हैं।
(१) गौतमिया गौतम :–उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ और गोरखपुर जिलों में हैं।
(२)गोनिहा गौतम :–बलिया,शाहबाद (बिहार) आदि जिलों में हैं।
(३) कण्डवार गौतम :–कण्डावेनघाट के पास रहने वाले गौतम क्षत्रिय कण्डवार गौतम कहे जाने लगे। ये बिहार के छपरा आदि जिलों में हैं।
(४)अण्टैया गौतम :–इन्होंने अपनी जागीर अंटसंट (व्यर्थ) में खो दी।इसीलिए अण्टैया गौतम कहलाते हैं।ये सरयू नदी के किनारे चकिया, श्रीनगर,जमालपुर,नारायणगढ़ आदि गांवों में बताये गए हैं।
(५) मौर्य गौतम:–इस वंश के क्षत्रिय उत्तर प्रदेश के मथुरा,फतेहपुर सीकरी,मध्य प्रदेश के उज्जैन,इन्दौर,तथा निमाड़ बिहार के आरा जिलों में पाए जाते हैं।
(६) रावत क्षत्रिय – गौत्र – भारद्वाज। प्रवर – तीन – भारद्वाज, वृहस्पति, अंगीरस। वेद -यजुर्वेद। देवी -चण्डी। गौतम वंश की उपशाखा है। इन क्षत्रियों का निवास उन्नाव तथा फ़तेहपुर जिलों में हैं।
उन्नाव जिले में बारा की स्टेट गौतम राजपूतो की है इसके महिपाल सिंह जमिदार थे।।
कोरांव का दुर्ग भी गौतम राजपूतो द्वारा ही बनवाया गया था।
बौद्ध ग्रंथ महायान के अनुसार मौर्य क्षत्रिय भी शाक्य गौतम क्षत्रियों की एक शाखा है
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ईस्ट यूपी, बदायूं के आसपास,बिहार व् मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में गौतम राजपूत बड़ी संख्या में मिलते हैं
अब बहुत से नीची जाति के लोग भी खुद को बौद्ध धर्मावलम्बी बताकर गौतम सरनेम लगाते हैं जिससे इन इलाको के बाहर के लोग किसी गौतम नामधारी को राजपूत नही बल्कि नीची जाति का समझने की भूल करते हैं
जबकि गौतम टाइटल राजपूत भूमिहार ब्राह्मण तीनो जातियो में मिलते है
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1-बदायूं के गौतम राजपूत अलवर में निकुम्भ राजपूतो के सामन्त थे जो 5 वी सदी के बाद बदायूं क्षेत्र में आए और हूणों को हराकर सत्ता स्थापित की।।।
कटोच राजपूत
कटोच वंश के गोत्र,कुलदेवी आदि=====
गोत्र-अत्री
ऋषि-कश्यप
देवी-ज्वालामुखी देवी
वंश-चन्द्रवंश,भुमिवंश
गद्दी एवं राज्य-मुल्तान,जालन्धर,नगरकोट,कांगड़ा,गुलेर,जसवान,सीबा,दातारपुर,लम्बा आदि
शाखाएँ-जसवाल,गुलेरिया,सबैया,डढवाल,धलोच आदि
उपाधि-मिया
वर्तमान निवास-हिमाचल प्रदेश,जम्मू कश्मीर,पंजाब आदि
कटोच वंश का परिचय ===
सेपेल ग्रिफिन के अनुसार कटोच राजपूत वंश विश्व का सबसे पुराना राजवंश है। कटोच चंद्रवंशी क्षत्रिय माने जाते है। कटोच राजघराना एवं राजपूत वंश महाभारत काल से भी पहले से उत्तर भारत के हिमाचल व पंजाब के इलाके में राज कर रहा है। महाभारत काल में कटोच राज्य को त्रिगर्त राज्य के नाम से जाना जाता था और आज के कटोच राजवंशी त्रिगर्त राजवंश के ही उत्तराधिकारी है।कल्हण कि राजतरंगनी में त्रिगर्त राज्य का जिक्र है,कल्हण के अनुसार कटोच वंश के राजा इन्दुचंद कि दो राजकुमारियों का विवाह कश्मीर के राजा अनन्तदेव(१०३०-१०४०)के साथ हुआ था,
पृथ्वीराज रासो में इस वंश का नाम कारटपाल मिलता है,अबुल फजल ने भी नगरकोट राज्य,कांगड़ा दुर्ग एवं ज्वालामुखी मन्दिर का जिक्र किया है,
यूरोपियन यात्री विलियम फिंच ने 1611 में अपनी यात्रा में कांगड़ा का जिक्र किया था,डा व्युलर लिखता है की कांगड़ा राज्य का एक नाम सुशर्मापुर था जो कटोच वंश को प्राचीन त्रिगर्त वंश के शासक सुशर्माचन्द का वंशज सिद्ध करता है,
त्रिगर्त राज्य की सीमाएँ एक समय पूर्वी पाकिस्तान से लेकर उत्तर में लद्दाख तथा पूरे हिमाचल प्रदेश में फैलि हुईं थी। त्रिगर्त राज्य का जिक्र रामायण एवं महाभारत में भी भली भांति मिलता है। कटोच राजा सुशर्माचन्द्र ने दुर्योधन का साथ देते हुए पांडवों के विरुद्ध युद्ध लड़ा था। सुशर्माचन्द्र का अर्जुन से युद्ध का जिक्र भी महाभारत में मिलता है। त्रिगर्त राज्य की मत्स्य और विराट राज्य के साथ शत्रुता का जिक्र महाभारत में उल्लेखित है।
कटोच वंश का जिक्र सिकंदर के युद्ध रिकार्ड्स में भी जाता है। इस वंश ने सिकंदर के भारत पर आक्रमण के समय उससे युद्ध छेड़ा और काँगड़ा राज्य को बचाने में सक्षम रहे। ब्रह्म पूराण के अनुसार कटोच वंश के मूल पुरुष राजा भूमि चन्द्र माने जाते है,इस कारण इस वंश को भुमिवंश भी कहा जाता है.इन्होने जालन्धर असुर को नष्ट किया था जिस कारण देवी ने प्रसन्न होकर इन्हें जालन्धर असुर का राज्य त्रिगर्त राज्य दिया था,इस वंश का राज्य पहले मुल्तान में था,बाद में जालन्धर में इनका शासन हुआ,जालन्धर और त्रिगर्त पर्यायवाची शब्द है
भुमिचंद ने सन ४३०० ईसा पूर्व में कटोच वंश एवं त्रिगर्त राज्य की स्थापना की। यह वंश कितना पुराना इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है के महाभारत कल के राजा सुशर्माचंद राजा भूमिचन्द्र के २३४ वीं पीढ़ी में पैदा हुए।

इस प्राचीन चंद्रवंशी राजवंश ने सदियों से विदेशी,देशी हमलावरों का वीरतापूर्वक सामना किया है,हिमाचल प्रदेश का मसहूर काँगड़ा किला भी कटोच वंश के क्षत्रियों की धरोहर है। कटोच वंश के बारे में काँगड़ा किले में बने महाराजा संसारचन्द्र संग्रहालय से बहूत कुछ जाना जा सकता है।
कटोच वंश के वर्तमान टिकाई मुखिया और राजपरिवार ====
राजा श्री आदित्य देव चन्द्र कटोच , कटोच वंश के ४८८ वे राजा और काँगड़ा राजपरिवार के मुखिया एवं लम्बा गाँव के जागीरदार है। यह पदवी इन्हे सं १९८८ से प्राप्त है। ४ दिसंबर १९६८ में इनकी शादी जोधपुर राजघराने की चंद्रेश कुमारी से हुई। इनके पुत्र टिक्का ऐश्वर्या चन्द्र कटोच कटोच वंश के भावी मुखिया है।
काँगड़ा राजघराने ने सन १८०० के आस पास से ही अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का युद्ध छेड़ दिया था। संघर्ष काफी समय तक चला जिसमे इस परिवार को काँगड़ा गंवाना पड़ा। आख़िरकार सं १८१० में दोनों पक्षों के बीच संधि हुई और काँगड़ा राजपरिवार को लम्बा गांव की जागीर मिली। तत्पश्चात काँगड़ा राजपरिवार और कटोच राजपूतो के राजगद्दी लम्बा गॉव के जागीरदार के मानी जाती है।

=== कटोच वंश की शाखाएँ ===
कटोच वंश की चार मुख्य शाखाएँ है :
1. जसवाल : ११७० ईस्वीं में जसवान का राज्य स्थापित होने के बाद यह शाख अलग हुई।
2. गुलेरिया : १४०५ ईस्वीं में कटोचों के गुलेर राज्य स्थापित होने के बाद कटोच से यह शाखा अलग हुई।
3. सबैया : १४५० ईस्वी के दौरान गुलेर से सिबा राज्य अलग होने के बाद सिबा के गुलेर सबैया कटोच कहलाए।
4. डढ़वाल : १५५० में इस शाखा ने दातारपुर राज्य की स्थापना की, इस शाखा का नाम डढा नामक स्थान पर बसावट के कारन पड़ा।
कटोच वंश की अन्य शाखाए धलोच,गागलिया,गदोहिया,जडोत,गदोहिया आदि भी है।

=== कटोच वंश की संछिप्त वंशावली और तत्कालीन समय का जुड़ा हुआ इतिहास ====
C. 7800 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
राजनका (राजपूत का प्रयायवाची शब्द) भूमि चन्द्र से इस वंश की शुरुआत हुई।जिन्होंने त्रिगर्त राज्य जालन्धर असुर को मारकर प्राप्त किया,मुल्तान(मूलस्थान)इन्ही का राज्य था.
C. 7800 – 4000 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
त्रिगर्त राजवंश यानी मूल कटोच वंशियों ने श्री राम के खिलाफ युद्ध लड़ा(रामायण में उल्लेखित)
C. 4000 – 1500 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
त्रिगता नरेश शुशर्माचंद ने काँगड़ा किले की स्थापना की और पांडवों के खिलाफ युद्ध लड़ा।
( महाभारत में उल्लेखित)
C. 900 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
कटोच राजाओं ने ईरानी व असीरिआई आक्रमणकारियों के खिलाफ युद्ध लड़ा और पंजाब की रक्षा की।
C. 500 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
राजनका परमानन्द चन्द्र ने सिकंदर के खिलाफ युद्ध लड़ा।
C. 275 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
कटोच राजाओं ने अशोक महान के खिलाफ युद्ध लड़े और मुल्तान हार गए।
C. 100 AD
काँगड़ा राजघराने ने कन्नौज के खिलाफ बहुत सारे युद्ध लड़े।
C. 470 AD
काँगड़ा के राजाओं ने हिमालय पर प्रभुत्व ज़माने के लिए कश्मीर के राजाओं के साथ कई युद्ध किए।

C. 643 AD
Hsuan Tsang ने कांगड़ा राज्य का दौरा किया उस समय इस राज्य को जालंधर के नाम से जाना जाने लगा था।
C. 853 AD
राजनका पृथ्वी चन्द्र का राज्य अभिषेक हुआ।
C. 1009 AD
महमूद ग़ज़नी ने सन 1009 में काँगड़ा(भीमनगर)पर आक्रमण किया।इस हमले के समय जगदीशचन्द्र यहाँ के राजा थे,
C. 1170 AD
काँगड़ा राज्य जस्वान और काँगड़ा दो भागों में विभाजित हुआ। राजा पूरब चन्द्र कटोच से जस्वान राज्य पर गद्दी जमाई और कटोच वंश में जसवाल शाखा की शुरुआत हुई। कटोच और मुहम्मद घोरी के बीच में युद्ध छिड़ा जिसमे(१२२० AD) कटोच जालंधर हार गए।
C. 1341 AD
राजनका रुपचंद्र की अगुवाई में कटोचों के दिल्ली तक के इलाके पर हमला किया और लूटा। तुग़लक़ों ने डर और सम्मान में इन्हे मियां की उपाधि दी। कटोचों ने तैमूर के खिलाफ भी युद्ध लड़ा।
C. 1405 AD
काँगड़ा राज्य फिर से दो भागों में बटा और गुलेर राज्य की स्थापना हुई। गुलेर राज्य के कटोच आज के गुलेरिआ राजपूत कहलाए।
C.1450 AD
गुलेर राज्य भी दो भागों में बट गया और नए सिबा राज्य की स्थापना हुई। सिबा राज्य के कटोच सिबिया राजपूत कहलाए।
C. 1526 – 1556 AD
शेरशाह सूरी ने हमला किया पर उसकी पराजय हुई। उसके बाद अकबर ने काँगड़ा पर हमला किया जिसमे कटोच वंश कि हार हुई,कटोच राजा ने अकबर को संधि का न्योता भेजा जिसे अकबर ने स्वीकारा। बाद में मुग़लों ने काँगड़ा किले पर ५२ बार हमला किया पर हर बार उन्हें मूह की खानी पड़ी।इसके बाद जहाँगीर ने भी हमला किया,
C. 1620 AD
जहांगीर और शाहजहाँ के समय मुग़लों का काँगड़ा किले पर कब्ज़ा हुआ।
C. 1700 AD
महाराजा भीम चन्द्र ने ओरंगजेब कि हिन्दू विरोधी नीतियों के कारण गुरु गोविन्द सिंह जी के साथ औरंगज़ेब के खिलाफ युद्ध किया। गुरु गोविन्द सिंह जी ने उन्हें धरम रक्षक की उपाधि दी।पंजाब में आज भी इनकी बहादुरी के गीत गाये जाते हैं.
C. 1750 AD
महाराजा घमंडचन्द्र को अहमदशाह अब्दाली द्वारा जालंधर और ११ पहाड़ी राज्यों का निज़ाम बनाया गया।
C. 1775 AD to C. 1820 AD
काँगड़ा राज्य के लिए यह स्वर्णिम युग कहा जाता है। राजा संसारचन्द्र द्वितीय की छत्र छाँव में राज्य खुशहाली से भरा।
C. 1820 AD
काँगड़ा राज्य के पतन का समय :गोरखों ने कांगड़ा राज्य पर हमला किया,राजा संसारचंद ने सिख राजा रणजीत सिंह से मदद मांगी मगर मदद के बदले महाराजा रणजीत सिंह की सिख सेना ने काँगड़ा और सीबा के किलों पर कब्ज़ा कर लिया। सीबा का किला राजा राम सिंह ने सिखों की सेना को हरा कर दुबारा जीत लिया। सिखों के दुर्व्यवहार ने महाराजा संसारचंद को बहुत आहत किया..
* 1820 – 1846 AD
सिखों ने काँगड़ा को अंग्रेजो ( ईस्ट इंडिया कंपनी को) सौंप दिया। कटोच राजाओ ने कांगड़ा की आजादी की जंग छेडी। यह आजादी के लिए प्रथम युद्धों और संघर्षों में से था। राजा प्रमोद चन्द्र के नेतृत्व में लड़ी गयी यह जंग कटोच हार गए। राजा प्रमोद चन्द्र को अल्मोड़ा जेल में बंधी बना कर रखा गया। वहां उनकी मृत्यु हो गई।
*1924 AD महाराजा जय चन्द्र काँगड़ा- लम्बा गाँव को महराजा की उपाधि से नवाजा गया और ११ बंदूकों की सलामी उन्हें दी जाने लगी  *1947 ADमहाराजा ध्रुव देव चन्द्र ने काँगड़ा को भारत में मिलाने की अनुमति दी।
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=====कांगड़ा का किला======
कांगड़ा का दुर्ग स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है,ये दुर्ग इतना विशाल और मजबूत था की इसे देवकृत माना जाता था,इसे नगरकोट अथवा भीमनगर का दुर्ग भी कहा जाता था,कटोच राजवंश के पूर्वज सुशर्माचंद द्वारा निर्मित इस दुर्ग पर पहला हमला महमूद गजनवी ने किया,इसके बाद गौरी,तैमूर,शेरशाह सूरी,अकबर,शाहजहाँ,गोरखों,सिखों ने भी हमला किया,सदियों तक यह महान दुर्ग अपने ऐश्वर्य,आक्रमण,विनाश के बीच झूलता रहा,यह दुर्ग प्राचीन चन्द्रवंशी कटोच राजपूतों के गौरवशाली इतिहास कि गवाही देता है,
कांगड़ा का अजेय दुर्ग जिसे दुश्मन कि तोपें भी न तोड़ सकी वो सन 1905 में आये भयानक भूकम्प में धराशाई हो गया,मगर इसके खंडर आज भी चंद्रवंशी कटोच राजवंश के गौरवशाली अतीत कि याद दिलाते हैं ।।

 





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